रविवार, 17 फ़रवरी 2008

प्रौढ़ बचपन


आते -जाते रास्ते पर मैंने देखा
नन्हा सा एक प्रौढ़ बचपन
नही था उसके जीवन में
माता-पिता का प्यार -दुलार
उठा रखा था उसने हाथों में
अपने ही जैसा इक बचपन
सिखा दिया था जीना उसको
साल चार के इस जीवन में
जूझ रहा था पर हिम्मत से
लिए जिम्मेदारियों का बोझ स्वयं
नही था उसे लगता कोई ग़म
देख के उसको आती मुझमें
दया नही जोश और ताकत वरन
दुआ करती हूँ उसको मिले
आने वाले इस जीवन
सुख-सफलता और प्रसिधी -पराक्रम

पुकार

रे मानव ! उठ जाग निद्रा से
देख कराह रही ये धरा तेरी
पुकार रही ये माँ तेरी
उठ जा अब तो ओ मेरे लाल-नंदन

घायल करते लूटते इसका यौवन
चुन रहे पत्थरों में इसके
सुंदर, विशाल और कोमल तन
उसके हरियाले वसन का करते
चीर-हरण
कुछ दुःशासन -दुर्योधन
जो करते नाश इस धरनी का चैन-अमन
बन जा तू कृष्ण चला अब चक्र सुदर्शन

यदि अब न जागा तू तो जायेंगे चले
ये तेरी खुशहाली के दिन
फ़िर ना ले सकेगा
क्षण भर सुवास और दम