शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

‘प्रतिदान’ : लघुकथा

उमस इतनी थी कि थोड़ी दूर चलते ही मैं पसीने से तर-बतर हो गई । रिक्शे के लिए मैंने इधर-उधर नज़र दौड़ाई, तभी सामने से एक रिक्शावाला आता दिखा । पास आने पर रुकते हुए उसने मेरी तरफ प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा ।
“नाके तक जाना है, कितना लोगे ?“
“पचास रुपये ।“
“क्या !!! तीस होते हैं !!!“ कहकर मैं आगे बढ़ने लगी ।
“ठीक है चालीस दे देना ।“ अंगोछे से मुंह का पसीना पोछते हुए वह बोला ।
“न, तीस !!!“
“अच्छा बैठो ।“
रिक्शे पर बैठने पर मैंने राहत की साँस ली । चलते हुए रिक्शे पर मंद-मंद लगने वाली हवा के झोंको का आनंद लेते हुए मैंने आँखें बंद कर लीं । तभी रिक्शेवाले की कमीज़ से पसीने की बदबू का भयंकर भभका मेरे नथुनों से टकराया, मैंने नाक को रूमाल से ढक लिया । अब रिक्शे पर बैठना दूभर हो रहा था, मैं गंतव्य का बेसब्री से इंतज़ार करने लगी ।
“रात होने लगी तो लगा कि आज कोई सवारी नहीं मिलेगी ।“ पैडल मारते हुए वह बोला।
“लगता है तुम इस शहर में नए हो ?”
“जी हाँ ।”
“हम्म, तभी इस पौश इलाक़े में सवारी ढूंढ रहे हो ?“
“भला हो ऊपर वाले का, जो आपको भेज दिया, वर्ना आज भूख से मर जाता, सुबह से पेट में कुछ नहीं गया है ।“
थोड़ी देर में नाका आ गया । उतर कर मैंने उसकी तरफ पचास रूपए बढ़ाए ।
“बहन जी, टूटे नहीं हैं ?” उसने परेशान होकर पूछा ।
“पूरे रख लो ।“
उसने अचरज से मेरी ओर देखा, फिर रूपये लेकर पहले रिक्शे के हैंडिल से फिर माथे से लगाते हुए पूछा –
“बहन जी, आपको वापस घर भी तो जाना होगा न ?”
“हाँ, पर....क्यों ?” मैं हैरत से उसे देखने लगी ।
“मैं उस सामने वाले ढाबे पर खाना खा रहा हूँ, जब आप लौटेंगी तो आपको वापस घर पहुंचा दूंगा, इसी पैसे में ।”