शनिवार, 28 सितंबर 2019

पहचान : लघु कहानी

मुझे बहुत अच्छे लगते हैं प्रशांत भैया।
जब भी सोनी बुआ के आने की खबर लगती तो मैं पूरे घर में फिरकी सी नाचने लगती। जुबान यह पूछ-पूछ कर हलकान कर लेती कि
"बुआ की ट्रेन कब आएगी।"
"ये बुआ हमेशा हमारे स्कूल जाने के बाद ही क्यों आती हैं?"

सुबह साढ़े छह बजे स्कूल वैन यमदूत की तरह द्वार पर आ धमकती। स्कूल में तो समय जैसे रुक ही जाता था। दिनभर ख्याल घर पर टंगा रहता।

घर आने पर नज़रें प्रशांत भैया को खोजतीं। साथ मन में धुक-धुकी भी लगी रहती कि कहीं ऐसा न हो कि भैया आए ही न हों पर जैसे ही भैया दिखते मेरी आँखें फुलझड़ी हो जातीं। हम दोनों साथ-साथ खूब घर-घरौंदा खेलते।

इस बार न जाने क्यों बुआ बहुत उदास थीं।
पिता जी उनको समझा रहे थे। "अब ज़माना बदल गया है छोटी, चिंता मत कर, सब ठीक हो जाएगा! प्रशांत को यहीं छोड़ जा!"

यह सुनते ही मुझे ऐसा लगा जैसे चालीस चोरों का खजाना हाथ लग गया हो। बुआ जाते समय प्रशांत भैया को कुछ समझा रही थीं। वे सिर हिलाते हुए उनकी साड़ी के पल्लू से खेल रहे थे।

बुआ चली गईं। उनके जाने के बाद मुझे जितनी खुशी हुई उससे कहीं अधिक सिर पर चिंता सवार थी। मैं पिता जी से बार-बार पूछती।
"प्रशांत भैया अब हमेशा हमारे साथ रहेंगे ना?" "अगर बुआ लेने आ गयीं तो?"
"अगर आ गईं तो अबकी तुझे भेज देंगे उनके साथ!" चश्में के ऊपर से झाँकती उनकी शरारती आँखें देख मैं ठुनकने लगती तो वे जोर से हँसते। फिर संजीदगी से कहते, "जा प्रशांत को अपने साथ ले जा खेलने!"

यूँ तो मंदिर जाना, पूजा करना मुझे कभी भी भाता नहीं था लेकिन प्रशांत भैया के लिए स्कूल वैन में आते-जाते हर छोटे-बड़े मंदिर को देख बुदबुदाती जाती, "हे भगवान, बुआ कभी भैया को न ले जाएँ! भैया हमारे साथ रहें!"

घर में एक मास्टर जी आने लगे थे। भैया को पढ़ाने के लिए। वे मुझे ज़रा भी अच्छे नहीं लगते थे। वे भैया को जाने क्या-क्या कहते थे। उस समय मैं उन्हें समझ नहीं पायी थी। शायद भैया समझते थे। तभी तो उनकी गोल-गोल आँखें डूबते सूरज सी हो जाती थीं। पर उनको रोते नहीं देखा था। वे हमेशा चुप रहते थे।

कुछ दिन बाद पिता जी ने मास्टर जी को हटा दिया। भैया मेरे साथ स्कूल जाने लगे। अब वे काफी खुश दिखने लगे थे।

वे सबसे अधिक खुश तब होते थे जब वे जीने पर बैठ कर अपनी ड्राइंग की काॅपी में कुछ बनाया करते थे। मैंने कई बार देखने का प्रयास किया लेकिन वे उसे झट से बंद कर देते थे।

उस दिन भी भैया जीने पर बैठे अपनी ड्राइंग की काॅपी में कुछ बना रहे थे। लेकिन इस बार मुझे आता देख उन्होंने अपनी काॅपी बंद नहीं की बल्कि वे मेरी ओर देख कर मुस्कुराए भी। मैं भी उनके करीब जाकर जीने पर बैठ गयी।
उन्होंने अपनी काॅपी मेरी ओर बढ़ा दी। मेरी जिज्ञासा कुलाँचे मारने लगी। मैं पन्ने उलट-पलट कर उनके बनाए चित्रों को देखे जा रही थी। हर चित्र भैया के नये रूप का परिचय करवा रहा था।

मैं उनके चित्रों को देख रही थी और भैया मेरे चेहरे को पढ़ रहे थे। पहली बार उनका अबोला टूटा था।

"अनु मेरे चित्र कैसे लगे?"
पहली बार भैया की आवाज़ सुन रही थी। उनकी आवाज़ ने मेरे अंदर उमड़ रहे बहुत से प्रश्नों का जवाब दे दिया था साथ ही बुआ जी की उदासी का सबब भी समझ आ गया। उस दिन लगा जैसे मैं भैया को अच्छी तरह से जान गयी हूँ।

धीरे-धीरे समय भी उनको तवज्जो देने लगा था।
भैया ने एक टेस्ट दिया था जिसका परिणाम आने पर वे बहुत खुश थे। वे दिल्ली चले गए।
पढ़ाई खत्म कर मैं भी विद्यालय में पढ़ाने लगी।

आज प्रशांत भैया का एक ईमेल आया है। उन्होंने लिखा है कि अगले हफ़्ते उनकी डिज़ाइन की हुई फीमेल ड्रेसेज़ का फैशन शो है। ईमेल में भैया की अपनी कुछ तस्वीरें भी हैं। जिसमें स्त्रियों की भिन्न-भिन्न वेशभूषा में प्रशांत भैया बहुत आत्मविश्वास से भरे, खिले-खिले दिख रहे थे, जैसे उस दिन उनकी ड्राइंग की काॅपी में बने चित्रों में एक लड़का ऐसी ही भिन्न-भिन्न वेशभूषा में नज़र आ रहा था...बिंदास!... बेमिसाल!... जिसने अब अपनी पहचान बना ली थी।

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