बुधवार, 3 फ़रवरी 2016

पारुल :लघुकथा

अक्सर सुबह-सुबह नन्हीं पारुल, अपनी बहन पिंकी के साथ आ जाती। पिंकी बर्तन धोती, झाड़ू-पोछा करती। पारुल मुझसे बतियाती। कभी कॉलोनी के किस्से तो कभी अपने भाई-बहनों की बातें। सात-आठ साल की उम्र और दुनियादारी की बातें, जैसे दादी-अम्मा हो। एक लगाव सा हो गया था उससे।

पिंकी को बेटी हुई तो उसने दो महीने की छुट्टी ले ली। अब पारुल भी नहीं आती थी। सुबह-सवेरे उसकी भोली बातें सुनने की आदत सी हो गई थी। अब सूना-सूना सा लगता था। एक सुबह पारुल अपनी माँ के साथ गेट पर खड़ी थी। मैंने जल्दी से गेट खोला और प्यार से पूछा, “पारुल, दीदी नहीं आती तो तुमने भी आना बंद कर दिया, क्यों !” वह मुस्कुरा कर अपनी माँ की ओर देखने लगी।

“बिटिया, जबलेक पिंकी न अइहे तबलेक पारुल के काम पे धई लेव।” गेट पर खड़े-खड़े ही पारुल की माँ बोली।

“पारुल को काम पर रख लूँ ! ये तो बहुत छोटी है !” मैंने पारुल की ओर देखते हुए कहा।

“अरे बिटिया, ई कुल काम कई लेत है, एतनी छोट नाही बा।”

“नहीं, मैं इतनी छोटी बच्ची से काम नहीं करवाउँगी !”

“बिटिया, पेटे के आग छोट बड़ नाई देखत। तू काम न करवईहो तो कहूँ और करे के परी, लड़की जात कहूँ कुछ ऊँच-नीच होई जाय तो...।” कहते हुए वह चली गई और पीछे-पीछे पारुल भी।

अपने रोजमर्रा के काम निपटाकर मैं ऑफिस चली गई। सारे दिन मन खिन्न सा रहा। रह-रहकर पारुल का चेहरा और उसकी माँ की बात दिमाग में घूमती रही। शाम को घर वापसी के लिए मैं बस में बैठी। खिड़की से सिर टिकाकर आँखें बंद कर लीं। चौराहे पर सिग्नल पर बस रुकी तो मेरी आँख खुल गई।

शोर से ध्यान पास के पार्क की ओर चला गया। उसके बाहर भीड़ जमा थी। मैंने गर्दन उचकाकर बाहर झाँका। दृश्‍य देखकर मेरा माथा घूम गया। सामने दो बाँसों के बीच बंधी रस्सी पर हाथ में डंडा लिए पारुल खड़ी थी। “पाss रुss लss !” मेरी चीख निकल गई। मैं हड़बड़ाकर बस के गेट पर आ गई। वहाँ से उसका चेहरा साफ दिख रहा था। पर वह पारुल नहीं कोई और बच्ची थी।

मेरा सारा शरीर पसीने से नहा गया था। दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। बस चल पड़ी थी। मैंने लंबी साँस ली। मैंने फैसला किया कि पारुल को काम पर रख लूँगी। भले ही मैं उससे काम न करवाऊँ। दो महीने की ही तो बात है।
मन कुछ शांत हुआ। लेकिन अब उस रस्सी पर चढ़ी बच्ची का चेहरा आँखों में नाचने लगा। 
जैसे वह पूछ रही हो, “पारुल तो सुरक्षित हो गई लेकिन मैं.....?”