गली में बसा एक अलहदा सा नुक्कड़। जिसके एक ओर लाला की सट्टी और उसके ठीक सामने हकीम सैफ़ू मियाँ का दवाखाना।
पंखुड़ियाँ
समय के पंखों पर आशाओं के पखेरू लाए चुनकर जीवन की धूप-छाँव भरी पंखुड़ियाँ...
सोमवार, 18 अप्रैल 2022
जुगलबंदी :
शुक्रवार, 2 जुलाई 2021
कलयुग की महिमा
रवि ने जैसे ही आलमारी बंद की तो अंदर से फुसफुसाहट सुनाई दी, “य..यह किसकी दस्तक है? कौन हो सकता है?”
"कोई हमारी जगह लेने आ रहा है क्या!” अंदर से एक दूसरी आवाज़ आई।
“हुँह! किसकी मजाल है जो हमारी जगह ले?” पहली आवाज़ ठुनक कर बोली।
“शायद तुम भूल रही हो, तुमने भी तो आते ही मुझे एक तरफ सरका दिया था!” दूसरी ने ताना मारा।
“हाँआँ तो उस समय तुम अकेली थी!” पहली ने सफाई दी।
“क्या कहा, अकेली...यहाँ तुम दोनों से पहले मैं आई थी!” कोने में दुबकी खाँसती खखारती तीसरी आवाज़ आई।
“हह, पुरनियों का आगे-आगे कूदना शोभा देता है क्या!” पहली आवाज़ ने टोका।
“अँहँह! यहाँ कितनी बास भरी है!” एक नई आवाज़ ने मुँह बिचकाते हुए कहा जिसने अभी-अभी प्रवेश किया था।
“हाँ, पुरानी सीलन भरी, मुझे तो उबकाई आ रही है!” साथ ही दूसरी नई आवाज भी बोल उठी।
“कहीं इन दोनो का इशारा हमारी तरफ तो नहीं!” पुरानी आवाजें खुसपुसाईं, “सही कहती हैं ये नवेलियाँ! हम बीए , एम्मए, पीएचडी की डिग्रियों से अब बास ही तो आएगी!”
“त तुम लोग कौन हो?” तीनों ने सहमकर पूछा।
“हम महँगी, हाइटेक डिग्रियाँ हैं! हम इस रवि की बेरोजगारी मिटाने आई हैं!” दोनों नई आवाजें कड़कड़ाते हुए बोलीं।
“आओ बहना आओ, तुम दोनों भी बिस्तर जमा लो, आखिर सपने देखने का टैक्स थोड़े ही लगता है!" तीनों कोने में दुबकते हुए बोलीं।
अचानक रवि की तंद्रा टूटी। लैपटॉप पर इमेल खुला पड़ा था। कंपनी से रिजेक्शन का। जहाँ उसने नौकरी के लिए आवेदन किया था।
वह थकी उँगलियों से किसी दूसरी कंपनी के लिए आवेदन पत्र टाइप करने लगा।
कमरे में सन्नाटा पसरा था। उसे लगा जैसे आलमारी में पड़ी उसकी डिग्रियाँ भी थक कर शांत हो गई हैं।
रविवार, 30 मई 2021
सुराज
राजा सूर्यप्रताप के शासन का डंका स्वर्ग तक गूँजने लगा तो देवताओं ने प्रभु से राजा सूर्यप्रताप के शासन पर अंकुश लगाने की प्रार्थना की। प्रभु ने आश्वासन दिया कि वे स्वयं इसकी जाँच करेंगे। वे अपने एक गण को लेकर राजा सूर्यप्रताप के राज्य की ओर चल दिए।
वहाँ उन्होंने देखा कि कुछ लोग युद्ध के नगाड़े बजा रहे हैं। कुछ लोग मदिरा और रास-रंग में लिप्त हैं और कुछ लोग अपने खेतों के किनारे बैठकर रस्सियाँ बट रहे हैं।
अब प्रभु का धैर्य जाता रहा। उन्होंने तुरंत अपने गण को वास्तविकता का पता लगाने के लिए वापस भेजा।
गण के वापस आते ही प्रभु ने अविलंब प्रश्नों की झड़ी लगा दी।
“वे लोग कौन थे, जो बिना युद्ध के नगाड़े बजा रहे थे?”
“सैनिक थे प्रभु!”
“और वे, जो मदिरा और रास-रंग में लिप्त थे?
“वे चौकीदार थे प्रभु।”
“अर्थात्!”
“प्रभु, नगाड़ों की गूँज से प्रजा हरदम आतंकित और चौकन्नी रहती है इसलिए चौकीदारों का काम प्रजा स्वयं कर देती है। इससे उनके पास समय ही समय रहता है, जिसे वे रास-रंग में व्यतीत करते हैं।
“और जो इतनी सारी रस्सियाँ बट रहे थे वे कौन थे?
“वे किसान थे प्रभु!”
“अर्थात्!”
“मदिरा और रास-रंग की आपूर्ति के बदले चौकीदारों ने व्यापारियों को खेतों का मालिक बना दिया।”
“आगे कहो!”
“और प्रभु, वे किसान अपनी इहलीला समाप्त करने के लिए रस्सियाँ बट रहे थे।“
“अर्थात्, वास्तव में राजा सूर्यप्रताप दीर्घ शासन के योग्य हैं।“
शनिवार, 17 अक्टूबर 2020
एलेक्सा , एक रोबोट कथा :
"मम्मा! मेरा ब्रेकफ़ास्ट दो ना प्लीज़!"
"बेटा टेबल पर लगा है!"
"एलेक्सा! प्ले डांस म्यूजिक!"
'ओके...नाच मेरी जान, फटा-फट फट...'
"अपर्णा, सुनती हो, एक कप और गरमागरम चाय मिल जाती तो मज़ा आ जाता!"
"आपकी चाय टेबल पर पहले से रख दी है!"
"एलेक्सा! ओपेन टुडेज़ न्यूज़!"
'ओके...आज पूरे देश में नवरात्र पवित्रता के साथ मनाया जा रहा है...गैंगरेप के बाद उन्होंने उस लड़की को जला दिया..'
"बहू, मेरे लिए अदरक-तुलसी का काढ़ा बनाया या नहीं, आज दुर्गा सप्तशती का पाठ लंबा चलेगा!"
"माँ जी, आपका काढ़ा सामने तिपाई पर रखा है, देखिए!"
"एलेक्सा! प्ले भक्ति संगीत!"
'ओके...या देवी सर्वभूतेषु दुर्गा रूपेण संस्थिता...'
"मम्मा तौलिया!"
"सुनों, मेरी टाई नहीं मिल रही!"
"बहू, दीपक के लिए घी देना!"
"मम्मा?"
"अपर्णा?"
"बहू?"
"एलेक्सा?"
"एलेक्सा?"
"एलेक्सा?"
"लगता है सिग्नल नहीं आ रहा है!"
"कैसे आएगा, मैंने पावर स्विचऑफ जो कर दिया है।"
"क्यों दादू?"
"क्यों पापा?"
"क्यों जी?"
"क्यों? जब मेरी बहू सुबह से बिना खाए-पिए तुम लोगों के लिए काम कर सकती है तो तुम्हारी ऐलेक्सा बिना पावर के क्यों नहीं काम कर सकती?
(नवरात्र की शुभकामनाएँ!)
अर्चना तिवारी
मौलिक एवं अप्रकाशित
सोमवार, 5 अक्टूबर 2020
तख्त पलट : लघुकथा
गुरुवार, 10 सितंबर 2020
मिन्नी की बात :
शनिवार, 27 जून 2020
खारे दिन
उसके सामने से जाते ई-रिक्शे टाई-कोट पहने साहब से प्रतीत हो रहे थे। सड़क पर जो भी सवारियाँ आती थीं सरसराती हुई साँप की भांति उसमें घुस जाती थीं, जैसे कि कोई बिल हो।
रिज़वान उनको निरीह सा देखता रह जाता। हाँ, ‘रिज़वान’ रिक्शे के पीछे यही नाम पेंट था।
एक युवती वहाँ अवतरित हुई। उसका चेहरा भी काले चश्में और दुपट्टे से चाकचौबंद था। उसकी गर्दन का इधर-उधर हिलना बता रहा था कि वह कुछ तलाश रही है।
“बिटिया किधर जाएँगी?” रिज़वान ने अंगोछा मुँह से सरकाते हुए पूछा।
“दादा मुझे ई-रिक्शे से जाना है।“ दुपट्टे के बंधन से युवती का मुख हिला।
रिज़वान रिक्शा लेकर निकट आ गया। उसने रिक्शे के पीछे खोंसी एक बोतल को खोलकर पानीनुमा द्रव एक कपड़े पर उलीच लिया और शीघ्रता से रिक्शे की गद्दी पोछने लगा।
“बिटिया हमने सब सनेट कर दिया है देखिए।“
“सेनेटाइज़!” युवती ने सुधारा।
“हाँ हाँ बिटिया जी वही।“
“लेकिन ये तो सेनेटाइज़र नहीं लग रहा है?”
“बिटिया, हम पूछे रहे मेडिकल में, सौ रुपिया का रहा, उधार देवै के तइयार नहीं हुए।“
“तो ये पानी है?”
“हह हाँ बिटिया पानी तो है लेकिन हम नमक डाले हैं इसमें। हमरी नतिनी कहीं सुन के आई थीं, वही बताईं कि पानी में नमक डालने से सब सनेट हो जाता है।“
“अरे दादा, सेनेटाइज़ बोलिए!”
“हाँ बिटिया जी वही, सब कर दिया है, आइए बैठिए।“
“लेकिन दादा, इससे सेनेटाइज़ नहीं होता है।“
“अ अ बिटिया जी...” रिज़वान की आवाज़ घिघियाने लगी।
उसी क्षण चील की भांति एक ई-रिक्शा युवती के निकट आया।
ई-रिक्शेवाले ने रिक्शे की गद्दी और आजू-बाजू पर फर्र-फर्र स्प्रे की फुहार की। युवती ने पर्स से एक शीशी निकाली। उसमें से द्रव की बूँदें हथेलियों पर गिराईं। दोनों हथेलियों को आपस में रगड़ते हुए ई-रिक्शे में समा गई।
रिज़वान दूर तक ई-रिक्शे को जाता देखता रहा। उसके चेहरे के दो गोलों से कुछ बूँदें टपक कर जाने कहाँ गुम हो गईं।