सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

चलिए थोड़ा सा बदल जाएँ हम



बरषा बिगत सरद रितु आई। लछमन देखहु परम सुहाई॥
फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥

हे लक्ष्मण ! देखो, वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद् ऋतु आ गई । फूले हुए कास से सारी पृथ्वी छा गई। मानो वर्षा ऋतु ने कास रूपी सफेद बालों के रूप में  अपना बुढ़ापा प्रकट किया है।  

वर्षा ऋतु बीत गई और अब क्वार-कार्तिक  त्यौहारों और उत्सवों के गुच्छों के महीने हैं । गणेशोत्सव,  नवरात्रि , दशहरा , दीपावली, छठ आदि आदि  । इन त्यौहारों के बीच न जाने कितने छोटे-छोटे त्यौहार आते हैं।  अच्छा लगता है इस मौसम में जब गर्मी धीरे-धीरे रुखसत होने को होती है और शरद ऋतु अपना आँचल फैलाने लगती है गुलाबी ठंडक में इन त्यौहारों का आनंद दोगुना हो जाता है।  

ये त्यौहार भारतीय सभ्यता और संस्कृति के परिचायक तो हैं ही  साथ में ये  त्यौहार  कोई न कोई  प्रेरणा या संदेश देते  हैं ।  प्रत्येक त्यौहारों की अपनी-अपनी कहानी है और उनको मनाने के अपने-अपने विधान हैं।  गणेशोत्सव और नवरात्री में बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ स्थापित करना उनपर फूल-माला , चढ़ावा आदि चढ़ाना, बड़े-बड़े पूजा पंडालों की सजावट  और फिर सब कुछ ले जाकर नदियों में प्रवाहित करना |  

 मुझे ये  बड़ी अजीब सी बात लगती है कि जहाँ हम इन नदियों को इतना पूजते हैं वहीँ सारा कूड़ा कचरा इनके हवाले कर के पाप मुक्त हो जाना चाहते  हैं।  भला ये कहाँ का धर्मं है ? त्यौहार बीतने पर पूजा पंडालों के पास की गंदगी, कूड़े-कचरे के ढेर हमारी सभ्यता और संस्कृति को कितने चार चाँद लगाते हैं ये सोचने वाली बात है । हमारी आदत बन गई है सरकार को कोसने की । क्या हमारा कर्तव्य नहीं कि हम भी सफाई का ध्यान दें ? 

दूसरी चीज़ और देखने में आई है वह है लाउड स्पीकरों  में शोर मचाते भजन-कीर्तन से होने वाला ध्वनि प्रदूषण और सड़कों गलिओं पर फैले शामियाने-कनातों और पूजा पंडालों के  अतिक्रमण जो  ट्रेफिक जाम का सबब बन जाते हैं ।  दिनभर काम से थके लोगों को रात में इतने शोर  में सोना एक सजा जैसी हो जाती है । किसी बीमार की  उलझन को कोई नहीं समझ सकता कहीं से थोड़ी देर नींद आई भी तो ये शोर उसको ग्रसने में कोई कसर नहीं छोड़ते । रावण दहन अपने साथ-साथ कितने पेड़ों को दाहता है क्या हमने कभी सोचा ? उसमें लगने वाले कागज़ जो रीसाइकिल होकर काम आते, राख का ढेर बन जाते हैं ।

क्या यही है धर्म जिससे लोगों को तकलीफ हो ? सारे धर्म मानव कल्याण की बात करते हैं । क्या ये है मानव कल्याण ? क्या हम स्वार्थी नहीं हो गए जो सिर्फ अपने कल्याण की सोचते हैं ? और बाकी दुनिया ? ऊपर वाले ने तो सारी दुनिया बनाई है न , फिर ? उसको कष्ट देकर नुक्सान पहुँचाकर हम धर्म-कर्म कर रहे हैं क्या ?

 क्या आपको नहीं लगता कि हमारे धार्मिक  कर्मकांडों में संशोधन होना चाहिए ? देश काल परिस्थिति के अनुसार यदि हम अपने त्यौहारों को  मनाने के तरीकों में  बदलाव ले आयें तो क्या हम अधर्मी हो जायेंगे ? धर्म मानव कल्याण के लिए है न कि  क्षति पहुँचाने के लिए । जब परिवर्तन प्रकृति का नियम है तो हम क्यों चिपके हुए हैं उन्हीं पुरानी  
प्रथाओं  के साथ ? 

इन त्यौहारों में होने वाले बेतहाशा खर्चों से क्या मिलता है ? क्या ईश्वर  इन खर्चों से प्रसन्न होंगे ? जितना खर्च इन पूजन सामग्रियों में होता है अगर उससे  किसी असहाय की मदद करें तो क्या हम ईश्वर  के बन्दे नहीं रहेंगे ? मैंने ऊपर एक बात कही थी कि ये त्यौहारों कोई न कोई सन्देश देते हैं ।  दिखावे और स्वार्थ में  क्या हमने कभी उन संदेशों  की तरफ ध्यान दिया ? नहीं न । विजयदशमी बुराई पर अच्छाई की विजय है । क्या यही है अच्छाई ?  मेरा ध्येय  इन सभी बातों से किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाना नहीं है । न ही नास्तिकता का प्रचार करना । आस्तिक मैं भी हूँ ।  आस्तिक उसे कहते हैं जो  जीवन के उच्चतम मूल्यों में विश्वास करे ।  क्या वास्तव में ये त्यौहार हमें ख़ुशी दे पाते हैं ? फिजूल खर्च करके, दूसरों को तकलीफ दे कर ? 

क्या ऐसा नहीं लगता कि हमें अपने दृष्टिकोणों  को बदलने की आवश्यकता है ? समय की मांग में हमने हर चीज़ बदली है । अगर हम  थोड़ा सा अपने विचारों में परिवर्तन ले आयें तो हर दिन त्यौहार का होगा । मन उत्सवों की नगरी बन जाएगा । मेरा ये कहने का अर्थ नहीं है कि आप अपने घर में आन्दोलन कर दें कि अब कोई त्यौहार नहीं मनाएंगे । मनाइए  सभी त्यौहार मनाइए,  बस उनको मनाने के ढंग में थोड़ा परिवर्तन ले आइये । एकदम से नहीं बल्कि सतत निरंतर ।  तो चलिए  थोड़ा सा बदल जाएँ  हम । 


बुधवार, 9 अक्तूबर 2013

अमीर कृतियों के गरीब रचनाकार

   


साल भर से जिसकी प्रतीक्षा रही ग्यारहवां राष्ट्रीय  पुस्तक मेला हमारे शहर लखनऊ में  लगा और दस दिनों बाद सफलता पूर्वक ख़त्म हुआ ।   देश-दुनिया के विभिन्न  लेखकों-लेखिकाओं , कवियों-कवित्रियों की अनमोल एक से बढ़कर एक  रचनाएं देखकर तो बस यही जी करता था कि किसको खरीदें किसको छोड़ें, आखिर कार जेब को देखते हुए साल भर का कोटा ले ही आई। 

बड़ी कमी खलती है हमारे शहर में एक अच्छे पुस्तकालय की । दो पुस्तकालय थे वो भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए । इस भ्रष्टाचार ने हर जगह  जड़ें जमा रखीं हैं । जिन पुस्तकों में इतना ज्ञान भरा है वे भी नहीं बच पाईं इसके दुष्प्रभाव से.… 

… खैर मैं यहाँ जो बात करने जा रही हूँ वह इन सबसे परे है । पुस्तक मेले की ओर  फिर चलते हैं । पुस्तकों की स्टॉलोँ  पर घुमते-घुमते एक विचार बार-बार आ रहा था और एक ही बात जेहन में गूँज रही थी.…. "अमीर कृतियों  के गरीब रचनाकार "…. सच.. आज ये   पुस्तकें इतने ऊँचे दामों  पर बिक रही हैं  जिसके   अधिकतर  सृजनकर्ताओं को ताउम्र  कितने फाके करने पड़े थे । 

साहित्य सम्राट मुंशी प्रेमचंद की  रचनाओं से लगभग हर स्टॉल भरा पड़ा था लेकिन इस महान  रचनाकार का जीवन अभावों में गुज़रा ।  उनके सुपुत्र अमृत राय द्वारा लिखित उनकी जीवनी  "कलम का सिपाही " में वर्णित एक वक्तव्य में  ….  ' जीवन के  अंत में  मृत्यु शय्या पर पड़े प्रेम चंद जी का जैनेन्द्र से यह कहना कि … " अब आदर्शों से काम नहीं चलेगा "…यह उनके अंदर के विश्वासों के स्खलन की सूचना देता है कि गरीबी ने  कितना  तोड़ दिया था उन्हें लेकिन फिर भी  कलम चलती रही अंत तक। 
…. यही नहीं वसंत के अग्रदूत महाकवि निराला जी के  जीवन के बारे में महादेवी वर्मा के शब्दों में.…" आले पर कपड़े की  आधी जली बत्ती से भरा पर तेल से खाली मिट्टी का दिया , रसोईघर में अधजली दो-तीन लकड़ियाँ, खूँटी पर लटकती आटे  की छोटी सी गठरी मानो उपवास चिकित्सा के लाभों की व्याख्या कर रहे थे  "।
.…. इसी प्रकार नई कहानी आंदोलन के महत्वपूर्ण कहानीकार  हरिशंकर परसाई जी के बारे में कहा गया है कि उन्होंने जीवन में तीन विद्द्याएं सीखीं … एक विद्द्यार्थी जीवन में  बिना टिकट यात्रा करना , दूसरी निःसंकोच उधार मांगना और तीसरी बेफिक्री …इसके बिना या तो वे मर जाते या पागल हो जाते।
 गरीबी पर बात करना और है जिंदगी बिताना और बात है।  इसी तरह से न जाने कितनी विभूतियाँ अपने प्रकाश से दूसरों को तो रोशन कर रही हैं खुद के शरीर को जला कर, उनको तेल नसीब नहीं हुआ या ये कह सकते हैं कि उसके लिए उन्होंने कभी परवाह ही नहीं की।  

कैसी विडंबना है यह  कि ऐसे-ऐसे साहित्य रत्नों से समृद्ध   साहित्य का  रत्नाकर अपने इन मोतियों के लिए एक जल की बूँद  भी नहीं मुहैया करा सकता  ।