सोमवार, 24 जून 2019

एलियन

“होय! एक किलो आलू देना...”

“अरे हम कब से खड़े हैं, आधा किलो भिन्डी के लिए!”

“टमाटर दोगे! या बढ़ें कहीं और से लें!”

“सबसे पहले हम आये थे, और अभी तक खड़े हैं आध किलो प्याज के लिए!”
तमाम आवाजें। कुछ झल्लाईं, कुछ खीझतीं। न जाने कहाँ से इन आवाजों को चीरती एक अलग आवाज आई। न झल्लाहट, न खीझ और न ही खिसियाहट। एकदम संतुलित।

“भाई, हमें पाव भर शिमला मिर्च और पाव भर टमाटर चाहिए!” इतना कह आवाज कान में लगे फोन पर बतियाने लगी।

“हाँ-हाँ बच्चे कुछ सामान ले रहे हैं, आते हैं...," अचानक हैरान-परेशान आवाजें कान में तब्दील होने लगीं। संतुलित आवाज ने फोन पर फिर कहा, "तुम दोनों अपना होमवर्क खतम करो तब तक !”

यह सुनते ही कान में तब्दील हुई आवाजों में आँखें भी उग आईं। अब सब उस अलग आवाज को ऊपर से नीचे घूरने लगीं। कुछ आँखें आपस में खुसर-पुसर करने लगीं, “ये तो वही है ना!”

“हाँ लग तो रहा है, लेकिन कपड़े तो हम लोगों के जैसे ही हैं!”

“और फोन में किसी बच्चे को होमवर्क करने को कहा!”

“लेकिन बच्चा और इसका?”

“भगवान जाने, कलयुग है!”

“लीजिए सुहाना जी, आपका शिमला-टमाटर!” सारी आँखें इस आवाज की ओर घूम गईं और उनके गोले प्रश्नचिह्न की मुद्रा में आ गए।

“लाओ भाई, शुक्रिया! ये अपने पैसे काट लो!” कहते हुए संतुलित आवाज ने कनखियों से प्रश्नचिह्न दागते आँखों के गोलों की ओर एक पल को देखा।

फिर अपने होठों को अर्धचन्द्राकार कर अपना स्कूटर स्टार्ट कर निकल गई। उसके निकलते ही सारी आँखें पुनः आवाजों में बदल गईं।

किन्तु अब उनमें न झल्लाहट थी, न खिसियाहट। बस सब एक सुर में थीं, “तुम उसको जानते हो क्या!”

“लेकिन उसके बच्चे ! वह तो.....!"

“….हाँ, पर वह एलियन नहीं है !” उन्हीं आवाजों में से एक आवाज आई। किसकी थी, नहीं पता।


मंगलवार, 11 जून 2019

मन का हिस्सा : लघुकथा

खड़ी दोपहरिया है। बाग में एक टीलेनुमा स्थान पर बच्चे खेलने जुट रहे हैं। कुछ दूरी पर शीबू बूट पॉलिश की डिब्बी को गाड़ी बना लुढ़काते हुए इधर-उधर दौड़ रहा है। चिनिया अभी नहीं आई है। इसलिए शीबू बीच-बीच में पगडंडी की ओर भी देख लेता है। सहसा पत्तों की सरसराहट के साथ भद की आवाज़ आयी। यह दो आम थे जो शीबू के नज़दीक भूमि पर गिरे थे। पहले तो वह हकबका उठा फिर झपटकर दोनों आम हथेलियों के कब्जे में ले लिए।

सिंदूरी आभा लिए धूप से तमतमाए उन आमों पर शीबू को अभी भी विश्वास नहीं आ रहा था। उसने ऊपर ताका। फिर आमों का मुआइना करते हुए, “यह तो सेनुरहवा का पक्का है! पर...इसमें तो बौर ही नहीं आता?”
शीबू ने आम को नथुनों से लगाकर गहरी साँस खींची, “हम्म्म...खुसबूsss!..आजी कहती हैं कि इसके जितना रसीला पक्का दुनिया में नहीं है!” उसने दोनों को निकर की जेब के हवाले किया और वहाँ से सरपट चल पड़ा।

वह चलते-चलते कभी आमों को जेब से निकालकर तसल्ली करता, तो कभी नथुनों से लगा आँखें बंद कर खुशबू लेता। वह बस्ती में दाखिल हुआ तो अपने घर के सामने फुदकती हुई चिनिया मिल गई।

"ओ सीबू! कहाँ से आ रहा है?"
"बाग से, ये देख आज पक्का पाया!"
"अरे हाँ, कितना बड़ा है!"
"सेनुरहवा का जो है!"
"तू भाग्यसाली है सीबू।"
"कैसे?"
"मैंने सुना है कि जो सेनुरहवा का पक्का खाता है उसकी इच्छा पूरी होती है।"
"हट! खा विद्या कसम!"
"सच्ची, विद्या कसम!"
"तब तो इसे आजी को खिलाऊँगा जिससे उसकी आँखों की रोसनी आ जाए।"
"और दूसरा...कौन खाएगा?" चिनिया आम को हसरत से देखती है।
"दूसरा मैं खाऊँगा...और कौन!"
“अच्छा, एक बार मुझे खुसबू लेने देगा?”
“ले...खुसबू!" शीबू चिनिया की नाक से आम सटा देता है।
चिनिया गहरी साँस खींचती है। मुँह में आए पानी को सुड़कते हुए, "तेरी क्या इच्छा है सीबू?"
"मेरी इच्छा ..." शीबू आँखों में शरारत भरते हुए, "मेरी इच्छा है कि मैं जल्दी से इसे खाऊँ!“
“तो खा ले ना!”
“नाss, पहले दोनों पक्के आजी को दिखाऊँगा।“
"तब खाएगा?"
"हाँ....अच्छा चिनिया...अगर यह तुझे मिलता तो तू क्या इच्छा करती?"
"मैं?...मैं इच्छा करती कि मेरी सादी हो जाए बस!"
"हट, सादी तो सबकी होती है, अपनी इच्छा को बर्बाद ही करेगी तू तो?”
“पर बाबा तो मेरी सादी की ही चिंता करता है!“
“अच्छा ये बता...तू मुझसे सादी करेगी?”
“कर तो लूँ...लेकिन बाबा से पूछना पड़ेगा।“
“क्या पूछना पड़ेगा?”
“वह कहता है कि सादी बिरादरी वालों में करते हैं, तू बिरादरी में है या नहीं यह पूछना होगा ना?“
“अच्छा ठीक है...अभी मैं घर जाता हूँ।"

शीबू घर की ओर दौड़ लगा देता है।
फिर कुछ दूर जाकर रुक जाता है। कुछ सोचकर मुस्कुराता है फिर जेब से एक आम निकालकर चिनिया के घर की ओर भागता है।