सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

चलिए थोड़ा सा बदल जाएँ हम



बरषा बिगत सरद रितु आई। लछमन देखहु परम सुहाई॥
फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥

हे लक्ष्मण ! देखो, वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद् ऋतु आ गई । फूले हुए कास से सारी पृथ्वी छा गई। मानो वर्षा ऋतु ने कास रूपी सफेद बालों के रूप में  अपना बुढ़ापा प्रकट किया है।  

वर्षा ऋतु बीत गई और अब क्वार-कार्तिक  त्यौहारों और उत्सवों के गुच्छों के महीने हैं । गणेशोत्सव,  नवरात्रि , दशहरा , दीपावली, छठ आदि आदि  । इन त्यौहारों के बीच न जाने कितने छोटे-छोटे त्यौहार आते हैं।  अच्छा लगता है इस मौसम में जब गर्मी धीरे-धीरे रुखसत होने को होती है और शरद ऋतु अपना आँचल फैलाने लगती है गुलाबी ठंडक में इन त्यौहारों का आनंद दोगुना हो जाता है।  

ये त्यौहार भारतीय सभ्यता और संस्कृति के परिचायक तो हैं ही  साथ में ये  त्यौहार  कोई न कोई  प्रेरणा या संदेश देते  हैं ।  प्रत्येक त्यौहारों की अपनी-अपनी कहानी है और उनको मनाने के अपने-अपने विधान हैं।  गणेशोत्सव और नवरात्री में बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ स्थापित करना उनपर फूल-माला , चढ़ावा आदि चढ़ाना, बड़े-बड़े पूजा पंडालों की सजावट  और फिर सब कुछ ले जाकर नदियों में प्रवाहित करना |  

 मुझे ये  बड़ी अजीब सी बात लगती है कि जहाँ हम इन नदियों को इतना पूजते हैं वहीँ सारा कूड़ा कचरा इनके हवाले कर के पाप मुक्त हो जाना चाहते  हैं।  भला ये कहाँ का धर्मं है ? त्यौहार बीतने पर पूजा पंडालों के पास की गंदगी, कूड़े-कचरे के ढेर हमारी सभ्यता और संस्कृति को कितने चार चाँद लगाते हैं ये सोचने वाली बात है । हमारी आदत बन गई है सरकार को कोसने की । क्या हमारा कर्तव्य नहीं कि हम भी सफाई का ध्यान दें ? 

दूसरी चीज़ और देखने में आई है वह है लाउड स्पीकरों  में शोर मचाते भजन-कीर्तन से होने वाला ध्वनि प्रदूषण और सड़कों गलिओं पर फैले शामियाने-कनातों और पूजा पंडालों के  अतिक्रमण जो  ट्रेफिक जाम का सबब बन जाते हैं ।  दिनभर काम से थके लोगों को रात में इतने शोर  में सोना एक सजा जैसी हो जाती है । किसी बीमार की  उलझन को कोई नहीं समझ सकता कहीं से थोड़ी देर नींद आई भी तो ये शोर उसको ग्रसने में कोई कसर नहीं छोड़ते । रावण दहन अपने साथ-साथ कितने पेड़ों को दाहता है क्या हमने कभी सोचा ? उसमें लगने वाले कागज़ जो रीसाइकिल होकर काम आते, राख का ढेर बन जाते हैं ।

क्या यही है धर्म जिससे लोगों को तकलीफ हो ? सारे धर्म मानव कल्याण की बात करते हैं । क्या ये है मानव कल्याण ? क्या हम स्वार्थी नहीं हो गए जो सिर्फ अपने कल्याण की सोचते हैं ? और बाकी दुनिया ? ऊपर वाले ने तो सारी दुनिया बनाई है न , फिर ? उसको कष्ट देकर नुक्सान पहुँचाकर हम धर्म-कर्म कर रहे हैं क्या ?

 क्या आपको नहीं लगता कि हमारे धार्मिक  कर्मकांडों में संशोधन होना चाहिए ? देश काल परिस्थिति के अनुसार यदि हम अपने त्यौहारों को  मनाने के तरीकों में  बदलाव ले आयें तो क्या हम अधर्मी हो जायेंगे ? धर्म मानव कल्याण के लिए है न कि  क्षति पहुँचाने के लिए । जब परिवर्तन प्रकृति का नियम है तो हम क्यों चिपके हुए हैं उन्हीं पुरानी  
प्रथाओं  के साथ ? 

इन त्यौहारों में होने वाले बेतहाशा खर्चों से क्या मिलता है ? क्या ईश्वर  इन खर्चों से प्रसन्न होंगे ? जितना खर्च इन पूजन सामग्रियों में होता है अगर उससे  किसी असहाय की मदद करें तो क्या हम ईश्वर  के बन्दे नहीं रहेंगे ? मैंने ऊपर एक बात कही थी कि ये त्यौहारों कोई न कोई सन्देश देते हैं ।  दिखावे और स्वार्थ में  क्या हमने कभी उन संदेशों  की तरफ ध्यान दिया ? नहीं न । विजयदशमी बुराई पर अच्छाई की विजय है । क्या यही है अच्छाई ?  मेरा ध्येय  इन सभी बातों से किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाना नहीं है । न ही नास्तिकता का प्रचार करना । आस्तिक मैं भी हूँ ।  आस्तिक उसे कहते हैं जो  जीवन के उच्चतम मूल्यों में विश्वास करे ।  क्या वास्तव में ये त्यौहार हमें ख़ुशी दे पाते हैं ? फिजूल खर्च करके, दूसरों को तकलीफ दे कर ? 

क्या ऐसा नहीं लगता कि हमें अपने दृष्टिकोणों  को बदलने की आवश्यकता है ? समय की मांग में हमने हर चीज़ बदली है । अगर हम  थोड़ा सा अपने विचारों में परिवर्तन ले आयें तो हर दिन त्यौहार का होगा । मन उत्सवों की नगरी बन जाएगा । मेरा ये कहने का अर्थ नहीं है कि आप अपने घर में आन्दोलन कर दें कि अब कोई त्यौहार नहीं मनाएंगे । मनाइए  सभी त्यौहार मनाइए,  बस उनको मनाने के ढंग में थोड़ा परिवर्तन ले आइये । एकदम से नहीं बल्कि सतत निरंतर ।  तो चलिए  थोड़ा सा बदल जाएँ  हम । 


बुधवार, 9 अक्तूबर 2013

अमीर कृतियों के गरीब रचनाकार

   


साल भर से जिसकी प्रतीक्षा रही ग्यारहवां राष्ट्रीय  पुस्तक मेला हमारे शहर लखनऊ में  लगा और दस दिनों बाद सफलता पूर्वक ख़त्म हुआ ।   देश-दुनिया के विभिन्न  लेखकों-लेखिकाओं , कवियों-कवित्रियों की अनमोल एक से बढ़कर एक  रचनाएं देखकर तो बस यही जी करता था कि किसको खरीदें किसको छोड़ें, आखिर कार जेब को देखते हुए साल भर का कोटा ले ही आई। 

बड़ी कमी खलती है हमारे शहर में एक अच्छे पुस्तकालय की । दो पुस्तकालय थे वो भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए । इस भ्रष्टाचार ने हर जगह  जड़ें जमा रखीं हैं । जिन पुस्तकों में इतना ज्ञान भरा है वे भी नहीं बच पाईं इसके दुष्प्रभाव से.… 

… खैर मैं यहाँ जो बात करने जा रही हूँ वह इन सबसे परे है । पुस्तक मेले की ओर  फिर चलते हैं । पुस्तकों की स्टॉलोँ  पर घुमते-घुमते एक विचार बार-बार आ रहा था और एक ही बात जेहन में गूँज रही थी.…. "अमीर कृतियों  के गरीब रचनाकार "…. सच.. आज ये   पुस्तकें इतने ऊँचे दामों  पर बिक रही हैं  जिसके   अधिकतर  सृजनकर्ताओं को ताउम्र  कितने फाके करने पड़े थे । 

साहित्य सम्राट मुंशी प्रेमचंद की  रचनाओं से लगभग हर स्टॉल भरा पड़ा था लेकिन इस महान  रचनाकार का जीवन अभावों में गुज़रा ।  उनके सुपुत्र अमृत राय द्वारा लिखित उनकी जीवनी  "कलम का सिपाही " में वर्णित एक वक्तव्य में  ….  ' जीवन के  अंत में  मृत्यु शय्या पर पड़े प्रेम चंद जी का जैनेन्द्र से यह कहना कि … " अब आदर्शों से काम नहीं चलेगा "…यह उनके अंदर के विश्वासों के स्खलन की सूचना देता है कि गरीबी ने  कितना  तोड़ दिया था उन्हें लेकिन फिर भी  कलम चलती रही अंत तक। 
…. यही नहीं वसंत के अग्रदूत महाकवि निराला जी के  जीवन के बारे में महादेवी वर्मा के शब्दों में.…" आले पर कपड़े की  आधी जली बत्ती से भरा पर तेल से खाली मिट्टी का दिया , रसोईघर में अधजली दो-तीन लकड़ियाँ, खूँटी पर लटकती आटे  की छोटी सी गठरी मानो उपवास चिकित्सा के लाभों की व्याख्या कर रहे थे  "।
.…. इसी प्रकार नई कहानी आंदोलन के महत्वपूर्ण कहानीकार  हरिशंकर परसाई जी के बारे में कहा गया है कि उन्होंने जीवन में तीन विद्द्याएं सीखीं … एक विद्द्यार्थी जीवन में  बिना टिकट यात्रा करना , दूसरी निःसंकोच उधार मांगना और तीसरी बेफिक्री …इसके बिना या तो वे मर जाते या पागल हो जाते।
 गरीबी पर बात करना और है जिंदगी बिताना और बात है।  इसी तरह से न जाने कितनी विभूतियाँ अपने प्रकाश से दूसरों को तो रोशन कर रही हैं खुद के शरीर को जला कर, उनको तेल नसीब नहीं हुआ या ये कह सकते हैं कि उसके लिए उन्होंने कभी परवाह ही नहीं की।  

कैसी विडंबना है यह  कि ऐसे-ऐसे साहित्य रत्नों से समृद्ध   साहित्य का  रत्नाकर अपने इन मोतियों के लिए एक जल की बूँद  भी नहीं मुहैया करा सकता  ।  

शनिवार, 28 सितंबर 2013

इंकलाब जिंदाबाद !!!


    

    आज  शहीद-ए-आजम भगत सिंह की 107वीं जयंती  है | इनका जन्म सन्  28 सितम्बर 1907 में गाँव बंगा, जिला लायलपुर, पंजाब (अब पाकिस्तान) में हुआ था| पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था।

    अमृतसर में 13 अप्रैल, 1919 को हुए जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। उस समय भगत सिंह करीब 12 वर्ष के थे जब जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड हुआ था। इसकी सूचना मिलते ही भगत सिंह अपने स्कूल से 12 मील पैदल चलकर जलियाँवाला बाग पहुँच गये। एक साधारण से परिवार में जन्म लेने वाले इस सपूत में असाधारण और दिव्य क्षमता थी | जब तक जिए, ब्रिटिश सरकार के छक्के छुड़ा दिए |

    भगत सिंह द्वारा व्यक्त विचारों और कार्यों की प्रासंगकिता आज भी बनी हुई है। भगत सिंह के विचार हिंसावादी न होकर  बल्कि परिवर्तन पर आधारित थे |  हमारी युवा पीढ़ी को भगत सिंह के जीवन और चरित्र से प्रेरणा लेनी चाहिए | आज के युवकों को अपने जीवन को भगत सिंह के जीवन से तुलना करनी चाहिए | 23  वर्ष की उम्र में इस भारत माँ के सपूत ने वह कर दिखाया जिसकी आज कल्पना भी नहीं  की जा सकती |

    देश का भविष्य सुनहरा हो या काला ये युवा पीढ़ी ही के द्वारा तय होता है | युवकों में जो भटकाव है उससे तो देश क्या खुद उनका भविष्य अंधकूप में चला जायेगा | पैसे कमाने की अंधी दौड़ ने युवकों को अपने कर्तव्यों से विमुख कर दिया है | यह विचार की बात है यदि भगत सिंह और उन जैसे अनेकों युवाओं ने देश की न सोच अपनी तिजोरी की सोची होती तो क्या होता ?

कमाले बुज़दिली है अपनी ही आंखों में पस्त होना, 

गर ज़रा सी जूरत हो तो क्या कुछ हो नहीं सकता।

उभरने ही नहीं देती यह बेमाइगियां दिल की, 

नहीं तो कौन सा कतरा है, जो दरिया हो नहीं सकता।

  ~~ भगत सिंह ~~


 वीरता और साहस का पर्याय कहे जाने वाले भगत सिंह हमारे दिलों में सदैव से हैं बस आवश्यकता है उनके विचारों को रगों में दौड़ाने की, एक इंकलाब की | 



मंगलवार, 17 सितंबर 2013

हम सभी विश्वकर्मा हैं

विश्वकर्मा को हिन्दू धार्मिक मान्यताओं और ग्रंथों के अनुसार निर्माण एवं सृजन का देवता माना जाता है। सोने की लंका और द्वारिका जैसे प्रमुख नगरों का निर्माण  विश्वकर्मा ने किया था |  कर्ण का 'कुण्डल', विष्णु भगवान का ‘सुदर्शन चक्र’, शंकर भगवान का ‘त्रिशूल’ और यमराज का ‘कालदण्ड’ इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भी भगवान विश्वकर्मा ने ही किया था ।


हम सभी 'विश्वकर्मा' हैं  अपने चरित्रअपने व्यक्तित्व, अपने विचारों और अपनी मानसिकताओं के | हमें दृढ इच्छा शक्ति जैसे सुदर्शन चक्र का निर्माण करना चाहिए जो हमारे अंदर बुराइयों को आने से पहले ही काट दे  | अपने ‘विचारों’, ‘मानसिकताओं’, और ‘कर्मों’  के ऐसे त्रिशूल का निर्माण करना चाहिए जो हमारे चरित्र और व्यक्तित्व से  अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष  को नष्ट कर दे |  वासना और व्यसन से बचने के लिए अपनी  इन्द्रियों को कालदंड बना लें तो समाज के व्यभिचार अपने आप दूर हो जायेंगे | 

हमारे कर्म, हमारे विचार हमारे शरीर को लंका भी बना सकते हैं और द्वारिका भी | सही मायने में यही विश्वकर्मा पूजा है जो हमे प्रत्येक दिन करनी चाहिए | 

शनिवार, 14 सितंबर 2013

हिंदी ! तेरी यह कैसी कहानी ?



हिंदी ! तेरी यह  कैसी   कहानी ?
तू हिंद महासागर फिर भी 
हम भरते, गैरों  का पानी 

परदेसी भाषा जो बोलें 
सिर को  ऊँचा  करके चलते 
हिंदी भाषा के ज्ञानी जन  
आँखें अपनी क्यों  नीची रखते ?

देख विडम्बना ऐसी मेरे 
भर आए नयनों में पानी 

 हिंदी ! तेरी यह  कैसी  कहानी ?
तू हिंद महासागर फिर भी 
हम भरते, गैरों  का पानी 

विद्या के आँगन में करके  
तेरा नित अपमान सभी 
परदेसी  भाषा का करते  
 मुक्त गले गुणगान सभी 

ऐसे इतराते है जैसे  कि 
उन सा नहीं  कोई ज्ञानी 
 सालों बीते आज़ादी के फिर भी 
तू बन न सकी हिन्द  की रानी 

 हिंदी ! तेरी यह कैसी कहानी ?
तू हिंद महासागर फिर भी 
हम भरते, गैरों  का पानी ?

 क्या उन्नति अवरुद्ध हुई  ?
  है इनका  क्या कोई सानी ?
निज भाषा की पूजा करते 
 रूसी, चीनी और जापानी 

हिंदी ! तेरी यह कैसी कहानी ?
तू हिंद महासागर फिर भी 
हम भरते गैरों  का पानी 

बुधवार, 21 अगस्त 2013

राखी धागे का त्यौहार....




कल बाज़ार में देखा रंग-बिरंगी सुनहली-रुपहली एक से बढ़ कर एक  राखियाँ दुकानों पर लहराती हुई अपनी तरफ ग्राहक का ध्यान आकर्षित करती हुई।   
रक्षाबंधन का आरम्भ कब, कहाँ और कैसे हुआ  मैं इसके बारे में  आप सभी को बताने नहीं जा रही हूँ।  ये सारी जानकारी  तो आपको गूगल के एक सर्च पर द्रौपदी के चीर की तरह बेहिसाब मिल जाएगी।  एक बार तो यही सोचा कि कुछ कतर-ब्योंत करूँ और उनको  यहाँ चस्पा कर दूँ और बना डालूँ  एक सलोना सा आलेख। परन्तु  अंतरात्मा ने मुझे झकझोरा और कहा -  ये तो ऐसे ही होगा जैसे किसी की उतरन पहन ली हो। सो मैंने ये विचार त्याग दिया ।  

हाँ तो मैं बात कर रही थी बाज़ार में राखियों से सजी दुकानों की।  ऐसे ही राखियों से सजी दुकानों की छटा देखते हुए एक दुकान पर पहुंची वहां किसी पुरानी  फिल्म का गाना बज रहा था...." राखी धागे का त्यौहार....बंधा हुआ हर एक धागे में भाई बहिन  का प्यार ..." सुनकर मन में भाई के लिए अपार स्नेह आंसुओं के रूप में उमड़ पड़ा।   सचमुच  कितना गहरा है ये रिश्ता, एक धागे में इतनी शक्ति है कि भाई आपनी बहिनों  की रक्षा का वचन देते  हैं बिना कोई  नफा-नुक्सान सोचे और बहिनें उनकी लम्बी और खुशहाल आयु की कामना करती हैं । लेकिन इस गाने से मन में एक सवाल उठ खड़ा हुआ , क्या इन धागों में आज भी उतनी ही शक्ति है ? क्या आज भी इसकी लाज के लिए भाई मर मिटते हैं ? इस सवाल से  मन अजीब सा हो उठा।    

भाई कितना ही बुरा क्यों न  हो वह बहिन  की रक्षा के लिए जान लगा देता है। बुराई  में सर्वोपरि  रावण को ही लीजिये उसने अपनी बहिन  सूर्पनखा   के अपमान का बदला लेने के लिए भगवान् श्री राम से टक्कर ली।  भाई का फ़र्ज़ अदा करने में उसने रत्ती भर भी कोताही नहीं की।  खुद मिट गया, सारा राज्य तहस-नहस  हो गया  लेकिन झुका नहीं।  भाई के रूप में देखें तो वह श्रेष्ठ भाई था।  

महाभारत युग में  दुर्योधन भी अपनी बहिन  दुःशला के पति जयद्रथ का पांडवों द्वारा अपमान करने पर आगबबूला  हो उठा और महाभारत के युद्ध में चक्रव्यूह रच कर जयद्रथ द्वारा अभिमन्यू को छल से मरवाया।  उसने भी बहिन के सुहाग के अपमान का बदला लेकर एक भाई का फ़र्ज़ निभाया  । 

यह तो रहा उन आतताई  भाइयों  का भातृत्व जज़्बा अपनी बहनों के लिए।  अब थोडा शत्रु पक्ष की बहिनों की रक्षा करने वाले भाइयों की और चलें।

  सिकंदर  सारे विश्व को जीतता हुआ भारत आया यहाँ राजा  पोरस से उसकी टक्कर हुई।  पोरस की वीरता के किस्से सुनकर सिकंदर की पत्नी के होश उड़ गए।  उसे कहीं से भारत में राखी बंधने की प्रथा के बारे में पता चला।  उसने तुरंत पोरस को राखी बांध कर अपने पति सिकंदर की रक्षा के लिए वचन बद्ध कर लिया।  जब युद्ध में  पोरस की तलवार की नोक पर सिकंदर की गर्दन आई  चट से राखी के धागे पोरस की आँखों के सामने लहराए और उसने अपनी मुँहबोली बहिन के सुहाग की रक्षा के लिए सिकंदर जैसे शत्रु  को जीवनदान दे दिया और खुद बंदी बन गया।  यहाँ भी एक भाई ने  अपनी मुंहबोली बहिन जो एक शत्रु की पत्नी भी थी उसके  लिए देश और अपने जीवन को संकट में डाल  दिया।
  
यही नहीं इन धागों पर एक बहिन का इतना विश्वास  है कि   भाई  चाहे  शत्रु ही क्यों न हों उन्हें ज़रा भी डर नहीं लगता था ।  रानी कर्मवती भी ऐसी ही बहिन थी जिसने इन धागों के बंधन पर विश्वास कर एक शत्रु राजा  हुमायूँ को अपने देश की रक्षा के लिए राखी भेजी और उस भाई ने उनके राज्य की रक्षा कर  उन धागों की लाज रखी। 

ये थी इन धागों की शक्ति , इन धागों में छिपा  प्रेम एक भाई का अपनी बहिन के लिए 
आज भी वही  धागे हैं, भारत देश है,  पर कहाँ चली गई उनकी शक्ति ? कहाँ चला गया  वह जज़्बा जो एक दुश्मन बहिन के लिए भी सगी से बढ़कर था? कहाँ चले गए वो  वचन ? जिसके लिए   एक दुष्ट, आतताई रावण...एक  जिद्दी, घमंडी दुर्योधन ने भी इन धागों के लिए  अपने जान की भी परवाह नहीं की।   क्या राह चलती लड़की  आपकी बहिन नहीं हो सकती जिसकी इज्ज़त सरे आम लूटी जाती  है ? क्या वह बहिन नहीं जिसके मासूम चेहरे पर अपनी हवस का तेज़ाब डाल कर उन्हें जीवन भर कुरूपता की  पीड़ा  झेलने पर मजबूर कर दिया जाता  हैं  ? 

 आये दिन ऑनर किलिंग की ख़बरें भाइयों की बहिनों के प्रति क्रूरता की कहानी कहती हैं। आज हम आधुनिक युग में हैं लेकिन अभी भी हमारे पैर उन्हीं मैली-कुचैली कुरीतियों में फँसे हैं।  भाई तब बहिन के लिए मौत का फ़रमान  जारी करता है जब बहिन अपने लिए मनपसंद वर चुन लेती है।  क्या ये उसी देश के भाई हैं जिस देश में कृष्ण ने अपनी बहिन सुभद्रा के मनपसंद वर  के लिए अर्जुन द्वारा सुभद्रा के  हरण का आदेश दे डाला।  समाज और मान -अपमान की चिंता किए बिना अपनी बहिन की ख़ुशी को सर्वोपरि रखा।  

आज यह  पावन पर्व एक प्रश्न खड़ा कर  रहा है कि क्या आज भी इन रेशमी रिश्तों की कोमलता बरकरार नहीं रखी जा सकती ? क्या राखी सचमुच सिर्फ धागे का ही त्यौहार बन कर रह गया है ? उसमें रिश्तों के मोतियों, प्रेम के रंगों की कोई जगह नहीं ?  

इन प्रश्नों का हल तो सोचना ही पड़ेगा तभी राखी की पवित्रता और चमक बनी रह सकेगी। 
आप सभी को इस पवन पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ !!!

 

  



गुरुवार, 15 अगस्त 2013

ऐ मेरे वतन के लोगों, ज़रा आँख में भर लो पानी


      बीत गया एक और स्वतंत्रता दिवस।  तिरंगे  में रंगा सुबह का समाचार पत्र, सड़कों पर लगी तिरंगी झंडियाँ  ।  दुकानों से तिरंगे झंडे,  बैंड, टोपियाँ, बिल्ले, टेटू आदि खरीदते स्कूल के बच्चे, रिक्शे-ऑटो में लगे तिरंगे  स्टीकर, मिठाइयों की दुकानों से समोसे-जलेबियाँ-लड्डू  खरीदते ग्राहक,  हर तरफ आज़ादी के पर्व को जोश और उल्लास  के साथ मानते हुए लोगों को देखकर बहुत अच्छा लगा।  इन सबके बावजूद मन में कहीं फाँस सी चुभी है ।  हमारी स्वतंत्रता का सफ़र धीरे-धीरे 66 वर्षों के पड़ाव पार कर गया।  बीते दिनों में हमने जो कुछ देखा, झेला  उससे मन में  बार-बार कई सवाल उठ खड़े होते हैं।  क्या यही है हमारा 'नियति से साक्षात्कार' ? जिसको पंडित जवाहर लाल नेहरु  ने 14 अगस्त 1947  की अर्धरात्रि में  संविधान  सभा को संबोधित करते हुए अपने ऐतिहासिक भाषण Tryst of Destiny में कहा था कि  "कई वर्षों पहले हमने नियति को मिलने का एक वचन दिया था आज वह समय आ गया ।"    क्या यही है हमारे सपनों का भारत जिसके लिए 63 दिनों के उपवास के बाद भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव फाँसी पर चढ़े थे ? बापू ने  सत्याग्रह किये थे  ? लाला लाजपत राय ने अपने बदन पर लाठियाँ  खाईं थीं ? जिसके लिए हजारों स्वतंत्रता सेनानियों ने अपनी शहादत दी थी ?हम किस ओर जा रहे हैं ? क्या हम फिर से गुलाम नहीं हो गए अपने ही लोगों के ? तब केवल एक फिरंगी थे ज़ुल्म ढाने वाले।  परन्तु  आज तो इतने फिरंगी हैं  कि हजारों  बापू, भगत सिंह भी कम पड़ जायेंगे।  उस समय तो फिरंगी इनका थोड़ा लिहाज भी करते थे परन्तु  आज हमारे देश के अपने फिरंगी सिर ही नहीं उठाने देंगे।    कोई ऐसा इलज़ाम लगा देंगे कि आन्दोलन के  'अ' अक्षर  का उच्चारण भी भरी पड़  जायेगा ।  हम अपने नैतिक मूल्यों, सभ्यता-संस्कृति, आचार-विचारों  की चिता जला  चुके हैं। कभी इन्हें घुट्टी के रूप में पिलाया जाता था लेकिन आज वही  घुट्टी बदल गई है।   भ्रष्टाचार की घुट्टी  हमारी रग-रग में घुल चुकी  है।  आबो- हवा, मिट्टी सभी में तो घुल चुका है यह जहर । हमारी नियति अब ये है ।   कहाँ से बनेंगे अब वो गाँधी,  भगतसिंह जैसे सपूत ? कहाँ गईं वो माएँ जो अपनी कोख से लाल-बाल-पाल जैसे सपूतों को जन्म देती थीं ?

 ऐ  मेरे वतन !! तू तो अनाथ हो गया । ऐ मेरे वतन के लोगों, ज़रा आँख में भर लो पानी।   

सोमवार, 12 अगस्त 2013

एक्सप्रेस हाईवे पर सर्वजन हिताय बस पैसेंजर

  


      एक्सप्रेस हाईवे पर बस पैसेंजर जी हाँ ये हाल है हमारी सरकारी बस सेवा का।  बस के  सफ़र  का कुछ ऐसा अनुभव हुआ कि मन खिन्न हो गया।  कुछ अनुभव आपसे बाँट रही हूँ।   होना कुछ नहीं कम से कम भड़ांस तो निकल जायेगी।  आगे ऊपर  वाला मालिक।  

 चार, छह, आठ लेन  की सड़कों का जाल, तरक्की के मामले में  हमारे देश की सड़कों ने खूब तरक्की की। क्या चौड़ी-चौड़ी सड़कें आपके मन मुताबिक़ स्पीड,  गाड़ी दौड़ाइए फर्राटे  से  मिनटों का काम सेकेंडों में कहने की ज़रूरत नहीं है। 

 अपनी गाड़ी हो तो "हँसते-हँसते कट जाएँ  रस्ते..." और अगर सरकारी बस से जाना हो तो "बहुत कठिन है सफ़र  बस की..."।  अचानक आपको कहीं दूसरे  शहर मीटिंग के लिए जाना पड़े और आप सोचे कि बस से पहुँच कर, किराया अधिक देकर आप स्मार्टली गंतव्य पर पहुँच जायेंगे तो आप सपने में हैं। भूल जाइये ये ख्वाब …  कारण…  रफ़्तार वाली लेनें तो बनी परन्तु  सरकारी बसों की खस्ता हालत उन्हें चियूँटिया चाल चलने को मजबूर कर देती  हैं।  अलग-अलग स्पीड वाली लेनों  के अनुरूप बस अभी भी नहीं चल रहीं है।

 सरकारी ड्राईवर इस काबिल नहीं हैं कि वो बसों को तेजी से चलाते  हुए  सुरक्षित स्थानों  पर पहुंचा सकें ।  साथ ही उनका व्यवहार यात्रियों के साथ बहुत बुरा होता है। ऐसा लगता है जैसे एयर  इण्डिया विमान के पाईलेट हों ।  आखिर हो भी क्यों नहीं सरकारी सेवा में जो  हैं कोई कुछ बोल के तो देखे। हमारे देश में सरकारी कर्मचारियों का रुतबा किसी महाराजा से कम नहीं है।   

कन्डक्टर साहब भी क्यों पीछे रहें उनको  यदि आपने बंधे रुपये दिए तो वह बाक़ी  बचे रुपयों को तुरंत नहीं देते उसे टिकट के पीछे लिख देते हैं मांगने  पर टालते रहते हैं और अक्सर ऐसा होता है लम्बे सफ़र के बाद गंतव्य स्थान आने पर उतरने की अफरा- तफरी में पैसा लेना रह जाता है।  होता यह है आपको पड़ी चपत और कन्डक्टर की चाँदी।  

 इसके मुकाबले  ट्रेन का  सफ़र कम से कम सस्ता और  सुविधजनक तो है ही साथ में आप अपने गंतव्य पर जल्दी पहुँच जाते हैं सामान्यतः।  गई बीती हालत में भी ट्रेनों  में पंखे , शौचालयों  की सुविधाएँ  तो मिलती ही हैं । 

दूसरी ओर  बस का किराया ट्रेन के किराये से दो गुने से भी अधिक  है और सुविधा के मामले में अगर आप कहीं अच्छी सेहत के मालिक हैं तो फँस  के बैठिये बाद में घुटनों के लिए झंडू बाम है न.…  बस के हिचकोले गेट वन फ्री …स्लिप डिस्क करवाने के लिए अच्छे हैं ।  

  इन सब के ऊपर  टॉल टेक्स आपकी जेब से कटता  है और फायदा उन्हें जो  निजी एयरकंडीशन गाड़ियों में  "सुहाना सफर और ये रास्ते हसीन..." की तर्ज़ पर   मुंह चिढ़ाते,  अंगूठा दिखाते आपको पीछे छोड़ते हुए  फर्राटे से निकल जाते हैं । क्योंकि आप आम जनता हैं और आम जनता तो है ही  'जनार्दन'  ।   सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय ।



शनिवार, 10 अगस्त 2013

लक्ष्य



 सुबह-सुबह  मैंने देखा

अपनी छोटी  सी बगिया में

एक नन्हा सा फूल मुस्कुराता

अंतर में थे उसके

 रंग, सुगंध , मुस्कान और आशा

नन्हा था जीवन-काल मगर

गम न था मिट जाने का

सिखा रहा था वह नन्हा कोमल

रखना जीवन का लक्ष्य

और बिखेरना मुस्कान सदा

शनिवार, 3 अगस्त 2013

मैं तो हूँ इक उड़ता बादल



मैं तो हूँ इक  उड़ता बादल

 चाह मिले तो  बरस जाउँगा

सूखे वन-उपवन  खेतों  को

  हरियाली दे कर  जाऊँगा


कहाँ रहे  वन  हरे-घनेरे

कहाँ रहीं  फलदायी  शाखें

गिरा गई  आंधी पश्चिम की 

 वृक्ष सभी तहज़ीब-अदब  के


 उग आये बेअदबी के सब 

  'ऊँचे' जंगल शुष्क कंकरीले  

 जिनके मन के वातायन को

 अब  मेरी फुहारें रास  नहीं


उनके  ‘मैं’ के सेहराओं की 

सूखीं  नम मस्त  हवाएँ भी

 यह इक सच  है मगर कड़वा

नागफनी के झाड़ों को कब

भायी  सावन की हरियाली

रविवार, 28 जुलाई 2013

हीरे के गढ़ अपने इरादे, सूरज तू नया बना दे

  हीरे के  गढ़  अपने इरादे 
  मंज़िल  है तेरे आगे 
 अँधेरा तेरी चौखट पर  
 रख जाएगा धूप फैला के   

 कल की चिता  जलाकर 
 भूलों की राख उड़ा कर 
 हौसलों की चिंगारी   से 
 इरादों के शोले भड़का कर 

 कर्मों  की मशाल जला  दे 
 संघर्षों को   और हवा दे 
 जिस्म का फौलाद पिघलाकर 
 सूरज तू नया  बना दे 

गुरुवार, 18 जुलाई 2013

जाएगा कहाँ रे तू गरीब भाई आगे कुआँ है पीछे खाई।


बिहार के सारण जिले में एक सरकारी प्राथमिक स्कूल में मध्याहन भोजन खाने के बाद भोजन विषाक्तता के कारण 23 बच्चों की मौत। अब पहले मिड-डे-मील चखेंगे प्रिंसिपल साहब।  निगरानी समिति का गठन होगा। इस खाने को प्रिंसिपल द्वारा चखते हुए कौन देखेगा ??? CCTV  लगेगा क्या ?? प्रिंसिपल साहब के तो खाने पीने का बंदोबस्त हो गया। प्रिंसिपल साहब ही क्यों उनके  जितने नातेदार रिश्तेदार होंगे सभी ये नेक काम करेंगे। आखिर में जब गंगा बह रही है तो प्यासा क्यों मरना। एक और गरीब भ्रष्टाचार  समिति के खाने पीने का बंदोबस्त हो गया  । कुर्सी वाले दाता कितना भला है तू एकदम बोले तो दरिया दिल अपने भाइयों का कितना ख्याल रखता  है। गरीब रोज़-रोज़ खाने के लिए जिए  इससे अच्छा एक दिन में ही.......... भर दे उसका पेट ऐसा की तान के सो जाए।  फिर कभी खाने के लिए मरना  ना पड़े। ऐसा बंदोबस्त की  जाएगा कहाँ रे तू गरीब भाई आगे कुआँ है  पीछे खाई। 



रविवार, 7 जुलाई 2013

खाद्य सुरक्षा योजना


आसानी से भोजन उपलब्ध होने से गरीब लोग हो जाएंगे आलसी
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 फेडरेशन ऑफ कर्नाटक चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज के प्रेसीडेंट पी शिवकुमार ने यह बात कही है।
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 शिवकुमार ने कहा कि खाद्य सुरक्षा योजना से सरकारी खर्च में भारी बढ़ोतरी होगी। इस रकम की जरूरत करदाताओं से ही पूरी की जाएगी। बेहतर रोजगार की कमी और मुफ्त राशन वितरण जैसी योजनाओं के कारण गरीबी रेखा के नीचे वाले लोग बेहद कम आय में गुजारा करने के आदी हो जाते हैं।  मुफ्त राशन जैसी योजनाओं के कारण लोगों के आलसी होने से यह स्थिति पैदा होती है। भारत जैसे विकासशील देश में कौशल निर्माण करना बेहद जरूरी है।बेहतर रोजगार की कमी और मुफ्त राशन वितरण जैसी योजनाओं के कारण गरीबी रेखा के नीचे वाले लोग बेहद कम आय में गुजारा करने के आदी हो जाते हैं। 
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ग़रीबों की इतनी चिन्ता अब तो शर्तियाँ देश में ग़रीबी और ग़रीब दोनों अंतर्धान हो जायेंगे। 
एक तरफ सरकार यह तय ही नहीं कर पाई कि  देश में ग़रीब कौन है ? उसने जो ग़रीबी का आधार तय किया उससे तो भारत में कोई गरीब है ही नहीं। 

इन आधुनिक सुखसुविधाओं से युक्त, ऐशो आराम से भरपूर, एयर कंडीशंड घरों में रहने वाले लोगों से पूछा जाए कि आखिरी बार इन लोगों ने कब काम किया ? ग़रीब आलसी हो जाएगा इसकी बड़ी चिंता है। इस देश में ग़रीब बेचारा ऐसा जंतु है जिसकी आड़ में सब ग़रीब हो गए। सरकार  जिसके लिए  भरपूर योजनायें चला रही है। क्या कभी उसने  ये सोचा कि इन योजनाओं के बारे में उन्हें पता भी है ? मैंने अपने यहाँ काम करने वाली से पूछा कि उसका राशन कार्ड बना है तो उसे राशन कार्ड के बारे में जानकारी तक नहीं थी। उसके जैसे ही कितने लोग यहाँ हैंजो जानते ही नहीं कि यह क्या है? और बनता कैसे है? राशन कार्ड बनवाने के लिए स्थाई पता चाहिए। कहाँ से ले आयें ये अपना स्थाई पता जिनको पता भी नहीं कि कल की रात किस भूमि पर बीतेगी। सरकार लोअर इनकम ग्रुप के लोगों के लिए मकान आवंटित कर रही है। लेकिन जिनकी कोई स्थाई इनकम ही नहीं उनका क्या?  सैकड़ों लुभावनी योजनायें चलाई गईं और भविष्य में भी चलाने की योजनायें हैं। पर इसका संज्ञान उन्हें नहीं है जिनके लिए ये बनाई गईं हैं। इन योजनाओं का लाभ तो हमारे देश के उन  बड़े-बड़े उच्च आय वर्ग के "गरीबों" की झोली में चला जाता है। 
हमारे देश में सबसे अधिक ग़रीब बड़े-बड़े अधिकारी और मंत्री हैं, ये इतने ग़रीब हैं कि इन  सारी  योजनाओं का धन भी इनको कम पड़  जाता है।