बुधवार, 21 अगस्त 2013

राखी धागे का त्यौहार....




कल बाज़ार में देखा रंग-बिरंगी सुनहली-रुपहली एक से बढ़ कर एक  राखियाँ दुकानों पर लहराती हुई अपनी तरफ ग्राहक का ध्यान आकर्षित करती हुई।   
रक्षाबंधन का आरम्भ कब, कहाँ और कैसे हुआ  मैं इसके बारे में  आप सभी को बताने नहीं जा रही हूँ।  ये सारी जानकारी  तो आपको गूगल के एक सर्च पर द्रौपदी के चीर की तरह बेहिसाब मिल जाएगी।  एक बार तो यही सोचा कि कुछ कतर-ब्योंत करूँ और उनको  यहाँ चस्पा कर दूँ और बना डालूँ  एक सलोना सा आलेख। परन्तु  अंतरात्मा ने मुझे झकझोरा और कहा -  ये तो ऐसे ही होगा जैसे किसी की उतरन पहन ली हो। सो मैंने ये विचार त्याग दिया ।  

हाँ तो मैं बात कर रही थी बाज़ार में राखियों से सजी दुकानों की।  ऐसे ही राखियों से सजी दुकानों की छटा देखते हुए एक दुकान पर पहुंची वहां किसी पुरानी  फिल्म का गाना बज रहा था...." राखी धागे का त्यौहार....बंधा हुआ हर एक धागे में भाई बहिन  का प्यार ..." सुनकर मन में भाई के लिए अपार स्नेह आंसुओं के रूप में उमड़ पड़ा।   सचमुच  कितना गहरा है ये रिश्ता, एक धागे में इतनी शक्ति है कि भाई आपनी बहिनों  की रक्षा का वचन देते  हैं बिना कोई  नफा-नुक्सान सोचे और बहिनें उनकी लम्बी और खुशहाल आयु की कामना करती हैं । लेकिन इस गाने से मन में एक सवाल उठ खड़ा हुआ , क्या इन धागों में आज भी उतनी ही शक्ति है ? क्या आज भी इसकी लाज के लिए भाई मर मिटते हैं ? इस सवाल से  मन अजीब सा हो उठा।    

भाई कितना ही बुरा क्यों न  हो वह बहिन  की रक्षा के लिए जान लगा देता है। बुराई  में सर्वोपरि  रावण को ही लीजिये उसने अपनी बहिन  सूर्पनखा   के अपमान का बदला लेने के लिए भगवान् श्री राम से टक्कर ली।  भाई का फ़र्ज़ अदा करने में उसने रत्ती भर भी कोताही नहीं की।  खुद मिट गया, सारा राज्य तहस-नहस  हो गया  लेकिन झुका नहीं।  भाई के रूप में देखें तो वह श्रेष्ठ भाई था।  

महाभारत युग में  दुर्योधन भी अपनी बहिन  दुःशला के पति जयद्रथ का पांडवों द्वारा अपमान करने पर आगबबूला  हो उठा और महाभारत के युद्ध में चक्रव्यूह रच कर जयद्रथ द्वारा अभिमन्यू को छल से मरवाया।  उसने भी बहिन के सुहाग के अपमान का बदला लेकर एक भाई का फ़र्ज़ निभाया  । 

यह तो रहा उन आतताई  भाइयों  का भातृत्व जज़्बा अपनी बहनों के लिए।  अब थोडा शत्रु पक्ष की बहिनों की रक्षा करने वाले भाइयों की और चलें।

  सिकंदर  सारे विश्व को जीतता हुआ भारत आया यहाँ राजा  पोरस से उसकी टक्कर हुई।  पोरस की वीरता के किस्से सुनकर सिकंदर की पत्नी के होश उड़ गए।  उसे कहीं से भारत में राखी बंधने की प्रथा के बारे में पता चला।  उसने तुरंत पोरस को राखी बांध कर अपने पति सिकंदर की रक्षा के लिए वचन बद्ध कर लिया।  जब युद्ध में  पोरस की तलवार की नोक पर सिकंदर की गर्दन आई  चट से राखी के धागे पोरस की आँखों के सामने लहराए और उसने अपनी मुँहबोली बहिन के सुहाग की रक्षा के लिए सिकंदर जैसे शत्रु  को जीवनदान दे दिया और खुद बंदी बन गया।  यहाँ भी एक भाई ने  अपनी मुंहबोली बहिन जो एक शत्रु की पत्नी भी थी उसके  लिए देश और अपने जीवन को संकट में डाल  दिया।
  
यही नहीं इन धागों पर एक बहिन का इतना विश्वास  है कि   भाई  चाहे  शत्रु ही क्यों न हों उन्हें ज़रा भी डर नहीं लगता था ।  रानी कर्मवती भी ऐसी ही बहिन थी जिसने इन धागों के बंधन पर विश्वास कर एक शत्रु राजा  हुमायूँ को अपने देश की रक्षा के लिए राखी भेजी और उस भाई ने उनके राज्य की रक्षा कर  उन धागों की लाज रखी। 

ये थी इन धागों की शक्ति , इन धागों में छिपा  प्रेम एक भाई का अपनी बहिन के लिए 
आज भी वही  धागे हैं, भारत देश है,  पर कहाँ चली गई उनकी शक्ति ? कहाँ चला गया  वह जज़्बा जो एक दुश्मन बहिन के लिए भी सगी से बढ़कर था? कहाँ चले गए वो  वचन ? जिसके लिए   एक दुष्ट, आतताई रावण...एक  जिद्दी, घमंडी दुर्योधन ने भी इन धागों के लिए  अपने जान की भी परवाह नहीं की।   क्या राह चलती लड़की  आपकी बहिन नहीं हो सकती जिसकी इज्ज़त सरे आम लूटी जाती  है ? क्या वह बहिन नहीं जिसके मासूम चेहरे पर अपनी हवस का तेज़ाब डाल कर उन्हें जीवन भर कुरूपता की  पीड़ा  झेलने पर मजबूर कर दिया जाता  हैं  ? 

 आये दिन ऑनर किलिंग की ख़बरें भाइयों की बहिनों के प्रति क्रूरता की कहानी कहती हैं। आज हम आधुनिक युग में हैं लेकिन अभी भी हमारे पैर उन्हीं मैली-कुचैली कुरीतियों में फँसे हैं।  भाई तब बहिन के लिए मौत का फ़रमान  जारी करता है जब बहिन अपने लिए मनपसंद वर चुन लेती है।  क्या ये उसी देश के भाई हैं जिस देश में कृष्ण ने अपनी बहिन सुभद्रा के मनपसंद वर  के लिए अर्जुन द्वारा सुभद्रा के  हरण का आदेश दे डाला।  समाज और मान -अपमान की चिंता किए बिना अपनी बहिन की ख़ुशी को सर्वोपरि रखा।  

आज यह  पावन पर्व एक प्रश्न खड़ा कर  रहा है कि क्या आज भी इन रेशमी रिश्तों की कोमलता बरकरार नहीं रखी जा सकती ? क्या राखी सचमुच सिर्फ धागे का ही त्यौहार बन कर रह गया है ? उसमें रिश्तों के मोतियों, प्रेम के रंगों की कोई जगह नहीं ?  

इन प्रश्नों का हल तो सोचना ही पड़ेगा तभी राखी की पवित्रता और चमक बनी रह सकेगी। 
आप सभी को इस पवन पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ !!!

 

  



गुरुवार, 15 अगस्त 2013

ऐ मेरे वतन के लोगों, ज़रा आँख में भर लो पानी


      बीत गया एक और स्वतंत्रता दिवस।  तिरंगे  में रंगा सुबह का समाचार पत्र, सड़कों पर लगी तिरंगी झंडियाँ  ।  दुकानों से तिरंगे झंडे,  बैंड, टोपियाँ, बिल्ले, टेटू आदि खरीदते स्कूल के बच्चे, रिक्शे-ऑटो में लगे तिरंगे  स्टीकर, मिठाइयों की दुकानों से समोसे-जलेबियाँ-लड्डू  खरीदते ग्राहक,  हर तरफ आज़ादी के पर्व को जोश और उल्लास  के साथ मानते हुए लोगों को देखकर बहुत अच्छा लगा।  इन सबके बावजूद मन में कहीं फाँस सी चुभी है ।  हमारी स्वतंत्रता का सफ़र धीरे-धीरे 66 वर्षों के पड़ाव पार कर गया।  बीते दिनों में हमने जो कुछ देखा, झेला  उससे मन में  बार-बार कई सवाल उठ खड़े होते हैं।  क्या यही है हमारा 'नियति से साक्षात्कार' ? जिसको पंडित जवाहर लाल नेहरु  ने 14 अगस्त 1947  की अर्धरात्रि में  संविधान  सभा को संबोधित करते हुए अपने ऐतिहासिक भाषण Tryst of Destiny में कहा था कि  "कई वर्षों पहले हमने नियति को मिलने का एक वचन दिया था आज वह समय आ गया ।"    क्या यही है हमारे सपनों का भारत जिसके लिए 63 दिनों के उपवास के बाद भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव फाँसी पर चढ़े थे ? बापू ने  सत्याग्रह किये थे  ? लाला लाजपत राय ने अपने बदन पर लाठियाँ  खाईं थीं ? जिसके लिए हजारों स्वतंत्रता सेनानियों ने अपनी शहादत दी थी ?हम किस ओर जा रहे हैं ? क्या हम फिर से गुलाम नहीं हो गए अपने ही लोगों के ? तब केवल एक फिरंगी थे ज़ुल्म ढाने वाले।  परन्तु  आज तो इतने फिरंगी हैं  कि हजारों  बापू, भगत सिंह भी कम पड़ जायेंगे।  उस समय तो फिरंगी इनका थोड़ा लिहाज भी करते थे परन्तु  आज हमारे देश के अपने फिरंगी सिर ही नहीं उठाने देंगे।    कोई ऐसा इलज़ाम लगा देंगे कि आन्दोलन के  'अ' अक्षर  का उच्चारण भी भरी पड़  जायेगा ।  हम अपने नैतिक मूल्यों, सभ्यता-संस्कृति, आचार-विचारों  की चिता जला  चुके हैं। कभी इन्हें घुट्टी के रूप में पिलाया जाता था लेकिन आज वही  घुट्टी बदल गई है।   भ्रष्टाचार की घुट्टी  हमारी रग-रग में घुल चुकी  है।  आबो- हवा, मिट्टी सभी में तो घुल चुका है यह जहर । हमारी नियति अब ये है ।   कहाँ से बनेंगे अब वो गाँधी,  भगतसिंह जैसे सपूत ? कहाँ गईं वो माएँ जो अपनी कोख से लाल-बाल-पाल जैसे सपूतों को जन्म देती थीं ?

 ऐ  मेरे वतन !! तू तो अनाथ हो गया । ऐ मेरे वतन के लोगों, ज़रा आँख में भर लो पानी।   

सोमवार, 12 अगस्त 2013

एक्सप्रेस हाईवे पर सर्वजन हिताय बस पैसेंजर

  


      एक्सप्रेस हाईवे पर बस पैसेंजर जी हाँ ये हाल है हमारी सरकारी बस सेवा का।  बस के  सफ़र  का कुछ ऐसा अनुभव हुआ कि मन खिन्न हो गया।  कुछ अनुभव आपसे बाँट रही हूँ।   होना कुछ नहीं कम से कम भड़ांस तो निकल जायेगी।  आगे ऊपर  वाला मालिक।  

 चार, छह, आठ लेन  की सड़कों का जाल, तरक्की के मामले में  हमारे देश की सड़कों ने खूब तरक्की की। क्या चौड़ी-चौड़ी सड़कें आपके मन मुताबिक़ स्पीड,  गाड़ी दौड़ाइए फर्राटे  से  मिनटों का काम सेकेंडों में कहने की ज़रूरत नहीं है। 

 अपनी गाड़ी हो तो "हँसते-हँसते कट जाएँ  रस्ते..." और अगर सरकारी बस से जाना हो तो "बहुत कठिन है सफ़र  बस की..."।  अचानक आपको कहीं दूसरे  शहर मीटिंग के लिए जाना पड़े और आप सोचे कि बस से पहुँच कर, किराया अधिक देकर आप स्मार्टली गंतव्य पर पहुँच जायेंगे तो आप सपने में हैं। भूल जाइये ये ख्वाब …  कारण…  रफ़्तार वाली लेनें तो बनी परन्तु  सरकारी बसों की खस्ता हालत उन्हें चियूँटिया चाल चलने को मजबूर कर देती  हैं।  अलग-अलग स्पीड वाली लेनों  के अनुरूप बस अभी भी नहीं चल रहीं है।

 सरकारी ड्राईवर इस काबिल नहीं हैं कि वो बसों को तेजी से चलाते  हुए  सुरक्षित स्थानों  पर पहुंचा सकें ।  साथ ही उनका व्यवहार यात्रियों के साथ बहुत बुरा होता है। ऐसा लगता है जैसे एयर  इण्डिया विमान के पाईलेट हों ।  आखिर हो भी क्यों नहीं सरकारी सेवा में जो  हैं कोई कुछ बोल के तो देखे। हमारे देश में सरकारी कर्मचारियों का रुतबा किसी महाराजा से कम नहीं है।   

कन्डक्टर साहब भी क्यों पीछे रहें उनको  यदि आपने बंधे रुपये दिए तो वह बाक़ी  बचे रुपयों को तुरंत नहीं देते उसे टिकट के पीछे लिख देते हैं मांगने  पर टालते रहते हैं और अक्सर ऐसा होता है लम्बे सफ़र के बाद गंतव्य स्थान आने पर उतरने की अफरा- तफरी में पैसा लेना रह जाता है।  होता यह है आपको पड़ी चपत और कन्डक्टर की चाँदी।  

 इसके मुकाबले  ट्रेन का  सफ़र कम से कम सस्ता और  सुविधजनक तो है ही साथ में आप अपने गंतव्य पर जल्दी पहुँच जाते हैं सामान्यतः।  गई बीती हालत में भी ट्रेनों  में पंखे , शौचालयों  की सुविधाएँ  तो मिलती ही हैं । 

दूसरी ओर  बस का किराया ट्रेन के किराये से दो गुने से भी अधिक  है और सुविधा के मामले में अगर आप कहीं अच्छी सेहत के मालिक हैं तो फँस  के बैठिये बाद में घुटनों के लिए झंडू बाम है न.…  बस के हिचकोले गेट वन फ्री …स्लिप डिस्क करवाने के लिए अच्छे हैं ।  

  इन सब के ऊपर  टॉल टेक्स आपकी जेब से कटता  है और फायदा उन्हें जो  निजी एयरकंडीशन गाड़ियों में  "सुहाना सफर और ये रास्ते हसीन..." की तर्ज़ पर   मुंह चिढ़ाते,  अंगूठा दिखाते आपको पीछे छोड़ते हुए  फर्राटे से निकल जाते हैं । क्योंकि आप आम जनता हैं और आम जनता तो है ही  'जनार्दन'  ।   सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय ।



शनिवार, 10 अगस्त 2013

लक्ष्य



 सुबह-सुबह  मैंने देखा

अपनी छोटी  सी बगिया में

एक नन्हा सा फूल मुस्कुराता

अंतर में थे उसके

 रंग, सुगंध , मुस्कान और आशा

नन्हा था जीवन-काल मगर

गम न था मिट जाने का

सिखा रहा था वह नन्हा कोमल

रखना जीवन का लक्ष्य

और बिखेरना मुस्कान सदा

शनिवार, 3 अगस्त 2013

मैं तो हूँ इक उड़ता बादल



मैं तो हूँ इक  उड़ता बादल

 चाह मिले तो  बरस जाउँगा

सूखे वन-उपवन  खेतों  को

  हरियाली दे कर  जाऊँगा


कहाँ रहे  वन  हरे-घनेरे

कहाँ रहीं  फलदायी  शाखें

गिरा गई  आंधी पश्चिम की 

 वृक्ष सभी तहज़ीब-अदब  के


 उग आये बेअदबी के सब 

  'ऊँचे' जंगल शुष्क कंकरीले  

 जिनके मन के वातायन को

 अब  मेरी फुहारें रास  नहीं


उनके  ‘मैं’ के सेहराओं की 

सूखीं  नम मस्त  हवाएँ भी

 यह इक सच  है मगर कड़वा

नागफनी के झाड़ों को कब

भायी  सावन की हरियाली