बुधवार, 26 अप्रैल 2017

शोर : लघुकथा

शोर से नमिता की नींद टूट गयी। नमिता ने मोबाइल उठा कर देखा। डेढ़ बज रहा था।
सामने वाली बिल्डिंग में सुदूर देश-प्रदेश से आए कुछ लड़के रहते हैं। कुछ पढ़ने वाले हैं और कुछ नौकरीपेशा। जोर की ऊँची आवाज़ से यह जाहिर था कि यह शोर उन्हीं का है।

“ओफ्फ्फ़ ओssह!...लोग सही कहते हैं कि ये निरे जंगली हैं...अपनी मौज-मस्ती में यह भी भूल जाते हैं कि इतनी रात गए दिनभर के थके-हारे कुछ लोग सो भी रहे होंगे...” भुनभुनाते हुए नमिता ने करवट बदली।

“क्या हुआ निम्मो...नींद नहीं आ रही क्या?” आकाश ने उनींदी आवाज़ में पूछा।

“इस शोर में भला कोई कैसे सो सकता है?”

“ऐसा करो...कान में रुई लगाओ और सो जाओ।” नमिता ने अपना तकिया उठाकर बगल में सोए आकाश पर दे मारा। फिर उसी तकिए को कान पर रखकर सोने की कोशिश करने लगी।

शोर और तेज हो गया था। वह उठकर बालकनी में आ गई। उसने लाइट जलाई और नीचे देखने लगी।

वहाँ एक टैक्सी खड़ी थी जिसमें लड़के बैठ रहे थे। दो लड़के मोटरसाइकिल पर थे। वे ही जोर-जोर से कुछ बोल रहे थे। पर वह नमिता को बिलकुल समझ नहीं आ रहा था, क्योंकि उनकी भाषा ही अलग थी। बालकनी की लाइट जलने पर उन्होंने एक उड़ती नजर नमिता की ओर डाली। और फिर अगले मिनट भर में टैक्सी तेजी से चल पड़ी। पीछे-पीछे मोटरसाइकिल भी। 

गली में फिर रात की नीरवता पसर गई।
नमिता ने खुली हवा में चैन की साँस ली और आकर बिस्तर पर लेट गई। 

करवट बदलते हुए उसे याद आया कि आकाश ने कहा था कि किसी ‘अच्छी-सी कॉलनी’ में मकान ले लेते हैं, पर उसने ही तो कहा था कि वहाँ हम इनसानों की आवाज़ सुनने को तरस जायेंगे। पर यह भी कहाँ पता था कि यहाँ इन जंगलियों से पाला पड़ेगा।

सुबह उसकी नींद फिर हल्के शोर से ही खुली। उसने पर्दे की ओट से झाँका। दो लड़के आकाश से मुख़ातिब थे। वे टूटी-फूटी हिंदी में बोल रहे थे, “थोड़ा पैसा और चाहिए...आपका हेल्प मिल जाता तो हम...।”

“हाँ-हाँ...मैं अभी आया...” कहते हुए आकाश कमरे में आया।

“क्या हुआ...ये लड़के यहाँ...?”

आकाश ने टी-शर्ट डाली और गाड़ी की चाभी लेकर कमरे से बाहर निकल गया। पीछे-पीछे नमिता भी कमरे से बाहर आ गई।
“आकाश...ये तुम सुबह-सुबह कहाँ जा रहे हो?”

“निम्मो...सामने वाले खन्ना जी को रात हार्ट अटैक आया था...ये लड़के उनको हॉस्पिटल ले गए थे, जहाँ उनकी बाईपास सर्जरी हो रही है...इनके सारे पैसे खत्म हो गए हैं...बाक़ी आकर बताता हूँ!” 
आकाश एक साँस में बोलते हुए खटा-खट सीढ़ियाँ उतरने लगा। दोनों लड़के भी उसके आगे सीढि़याँ उतर रहे थे।

तभी उनमें से एक सीढ़ियाँ उतरते हुए ठिठका और पलटकर नमिता को देखते हुए बोला, “सॉरी...वो रात में शोर का आपको डिस्टर्ब हुआ!”

16/04/2017
(चित्र गूगल से साभार)

सोमवार, 17 अप्रैल 2017

डर के साये में : लघुकथा

आये दिन महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार की घटनाओं से निकिता का मन उद्विग्न हो उठा था।
"एक लड़की का जीवन काँटों के बीच से गुज़रने जैसा है...ना जाने कब कौन सा काँटा उसकी अस्मिता को चीर कर तार-तार कर दे...उफ्फ्फ़! ये पुरुष!” दांत पीसते हुए निकिता ने मुट्ठियाँ भींच लीं।
विचारों के द्वन्द में वह ऑटो में आ बैठी। ऑटो चल पड़ा। अचानक उसका ध्यान गया कि वह दो पुरुषों के बीच फँसी बैठी है। वह असहज हो आगे खिसक गयी। उसे अपनी बगलों में उँगलियों का एहसास होने लगा। वह सिहर उठी। उसने दोनों तरफ बारी-बारी से देखा। उन दोनों पुरुषों की उँगलियाँ उनके मोबाइल पर थीं। यह देख निकिता को कुछ तसल्ली हुई।
उसका जिम आ गया। उसने उतर कर ऑटो वाले को देखा, फिर बड़ी सतर्कता से नोट का कोना इस तरह से पकड़ा कि कहीं ऑटो वाले का हाथ उसके हाथ से ना छू जाए। ऑटो वाला जब तक नोट पकड़ता निकिता ने नोट छोड़ दिया। नोट फड़फड़ाता हुआ सड़क पर आ गिरा।
“आउच!” निकिता के मुँह से निकला।
“आप जाइए, मैं उठा लूँगा।”
निकिता जल्दी-जल्दी लिफ्ट की ओर बढ़ी। लिफ्ट का दरवाजा बंद हो रहा था। उसने लपक कर उसका बटन दबा दिया। दरवाज़ा खुल गया। निकिता लिफ्ट में दाखिल हो गयी। उसमें एक दढ़ियल सा आदमी पहले से था। उसे देख निकिता की साँस चढ़ गयी। लिफ्ट चल चुकी थी।
वह वापस तो जा नहीं सकती थी। मन ही मन अपने को कोसने लगी, “मुझे सीढ़ियों से जाना चाहिए था, अब कहीं ये....हुफ्फ्फ़!” निकिता ने एक हाथ से अपने बैग को सीने से चिपका लिया। और दूसरे हाथ के नाख़ूनों को नोचने के अंदाज़ में कर सतर्क हो गई।
वह आदमी लिफ्ट में लगे किसी विज्ञापन को देखने में मशगूल था। निकिता का फ्लोर आ गया। वह तेजी से बाहर भागी। एक गहरी साँस भरते हुए उसने जिम में प्रवेश किया।
निकिता बिना व्यायाम के ही पसीने से सराबोर हो चुकी थी। वह साईकिलिंग करने लगी।
लगभग पाँच मिनट बीते होंगे। जिम के ट्रेनर ने सूचना दी, “आज एक प्रतियोगिता होने वाली है...जो लोग भाग लेना चाहते हैं छत पर चलें...मैम आप लोग भी चलिए।” ट्रेनर ने निकिता के साथ-साथ अन्य लड़कियों से भी आग्रह किया।
छत पर कुल पंद्रह प्रतियोगी थे। जिनमें चार लड़कियाँ थीं। प्रतियोगिता का एक चक्र पूरा होने के बाद अंतराल हुआ। तो कुछ लोग नीचे चले गए। उसी समय अचानक बिजली चली गयी। छत पर घुप्प अँधेरा छा गया।
तभी निकिता को ध्यान आया कि तीनों लड़कियाँ भी नीचे चली गयी थीं।
निकिता थर्रा उठी, “मूर्ख हूँ मैं भी! मुझे भी नीचे चले जाना चाहिए था...क्या ज़रूरत थी धाकड़ बनने की! आज तो...”
अभी वह यह सब सोच ही रही थी कि एक आवाज़ आयी, “जो जहाँ है, वहीं खड़ा रहे...मैं मोबाईल की लाइट जलाता हूँ।”
“हाँ छत पर बहुत सामान बिखरा है...।” यह दूसरी आवाज़ थी। और इसके साथ ही मोबाईल की मद्दिम रोशनी जल गयी... हालाँकि अँधेरा अब भी था लेकिन मन में आशंकाओं का अँधेरा मिट चुका था।
 (26/03/2017)
(दिशा प्रकाशन द्वारा 'नई सदी की धमक' साझा लघुकथा संकलन में प्रकाशित)
                                                                  (चित्र गूगल से साभार)

सोमवार, 10 अप्रैल 2017

अपने-अपने सुख : लघुकथा

अलसुबह गुमटी पर चाय-बिस्कुट खाते महेश जी को उनके दो मित्रों ने देख लिया।
“भाई, ये महेश सुबह-सुबह गुमटी पर चाय पी रहा है, आखिर मामला क्या है?” एक मित्र ने कहा।
“अरे यही नहीं एक दिन बंदे को सट्टी से सत्तू खरीदते हुए भी देखा था, पूछने पर बोला, भाई रिटायर्मेंट के मजे ले रहा हूँ।” दूसरे मित्र बोले।
“सही कहा...मैं भी देख रहा हूँ कि जब से वह रिटायर हुआ है, सुबह पोते-पोतियों को स्कूल छोड़ने की ड्यूटी बजा रहा है।”
“और दिखाता ऐसे है जैसे कहीं की गवर्नरी
मिल गई हो।”
“हुँह...बेटे-बहुओं के राज में कैसी गवर्नरी?”
“चलो चलकर हाल-चाल लेते हैं।” दोनों मित्र गुमटी की ओर बढ़ चले।
“अरे, तुम दोनों इतनी सुबह यहाँ कैसे?” महेश जी ने चाय की चुस्की लेते हुए पूछा।
“लो कर लो बात...हम भी यही पूछना चाहते हैं कि आजकल यहाँ चाय क्यों...?”
“ओहोहोहो... भई गुमटी की चाय की लत तो मुझे कॉलेज के ज़माने से थी...नौकरी की भाग-दौड़ में न जाने कब छूट गई...सुबह सैर-सपाटे पर निकलता हूँ तो पुराने दिन दोबारा जी लेता हूँ...” महेश जी बोले।
“यार, हमसे क्या छिपाना...आदमी रिटायरर्ड हो और घर में बेटे-बहू का राज हो तो चाय गुमटी पर ही पीनी पड़ती है।”
“और ऐसे में सत्तू केवल मज़े लेने के लिए कोई नहीं खाता।” 

महेश जी गंभीर मुद्रा में आ गए और बारी-बारी से दोनों का मुँह ताकने लगे। फिर अचानक ठट्ठा मारकर हँस पड़े। दोनों मित्र एक-दूसरे का चेहरा ताकने लगे, “भाई...भले ही तुम हमारी बात को हँसी में उड़ा लो लेकिन तुम्हारी पीड़ा हम भली-भांति समझ रहे हैं।”

“हाँ-हाँ...भाई चोर-चोर मौसरे भाई! आप लोग नहीं समझोगे मेरी पीड़ा तो कौन समझेगा।” ऐसा कहते हुए महेश जी की हँसी व्‍यंग्‍यात्‍मक हो गई। तभी ट्रैक सूट में उनकी बहू वहाँ आ गयी।

“डैडी जी, आज घर नहीं चलना क्या?”

“हाँ-हाँ...चलना है।” कहते हुए महेश जी मुस्कुराए। और बोले, “आज हमारे साथ ये दोनों भी चलेंगे...इन्‍हें तुम्‍हारे हाथ की चाय भी पीनी है और सत्तू भी खाना है।“

01/04/2017

                                                                 (चित्र गूगल से साभार)