शनिवार, 26 सितंबर 2015

'बौरा' :लघुकथा

बौरा, हां इसी नाम से तो पुकारते थे सब उसे वह एक कंधे पर पुरानी शाल डाले और दूसरे कंधे पर झोला लटकाए ऑटो स्टैंड के किनारे बने चबूतरे पर हमेशा बैठा दिखता था। वहां बैठे-बैठे वह हर आने-जाने वाले का मुस्कुराकर अंग्रेजी में अभिवादन करता। वह कौन है ? क्या करता है ? कहां रहता है ? इससे किसी को कोई सरोकार नहीं था। न ही कोई जानता था। लेकिन जब वह नहीं दिखता तो लोगों की नजरें उसे खोजती थीं।

दोपहर में जब सवारियों का आना-जाना कम हो जाता तो बौरा, ऑटो वालों और आसपास की गुमटी वालों के मनोरंजन और समय बिताने का साधन बन जाता। मौसम चाहे जो भी हो, लेकिन उसके कंधे से शाल कभी नहीं हटती थी। अक्सर दोपहर में जब वह बैठे-बैठे ऊंघने लगता तो कोई ऑटो वाला धीरे से आकर उसकी शाल खींचकर भाग जाता और बौरा उसको लेने के लिए बदहवास, परेशान सा उसके पीछे-पीछे भागने लगता। उस शाल को वापस पाने के लिए वह उन सबकी हर ऊल-जलूल फरमाइश पूरी करता। वे उससे जैसा करने को कहते वह वैसा ही करता। उसकी यह स्थिति देख लोग तालियां पीट, हंस-हंसकर लोट-पोट हो जाते। अंत में शाल पा लेने पर वह फिर से उसी चबूतरे पर विराजमान हो ऐसे मुस्कराने लगता जैसे कुछ हुआ ही न हो।

आज सुबह से बौरा पता नहीं कहां चला गया था। दोपहर भी बीतने लगी थी, लेकिन आज लोगों की नज़रें उसको नहीं खोज रहीं थीं। आज उस चबूतरे पर कहीं से एक औरत आकर लेट गई थी। उसके तन पर लिपटे मैले कपड़े में कपड़ा कम छोटे-बड़े झरोखे ज्यादा दिखाई दे रहे थे। ये झरोखे आज सड़क पर हर आने-जाने वालों के आकर्षण का केंद्र बने हुए थे। वहां से गुजरते लोगों की नजरें उन झरोखों में अटक-अटक जा रही थीं। कुछ नजरें ऐसी भी थीं जो चुपके से उधर जातीं और फिर अनदेखा कर ऐसे आगे बढ़ जातीं जैसे कि कुछ देखा ही न हो। कुछ हिकारत भरीं कोसतीं, बड़बड़ातीं हुई आगे बढ़ जातीं। लेकिन कई नजरें तो चबूतरे के चारों ओर परिक्रमा लगाती हुईं उसे हर कोण से देख लेने के भरसक प्रयास में लगी थीं। जैसे दुनिया का आठवां अजूबा यहीं अवतरित हो गया हो।

तभी अचानक न जाने कहां से बौरा प्रकट हुआ। जब वह चबूतरे की ओर बढ़ने लगा तो पीछे से सीटी बजने और तालियां पीटकर हंसने की आवाजें आने लगीं। लेकिन वह चबूतरे के पास दो पल के लिए ठिठका और फिर आगे बढ़ गया।

उस औरत के तन पर लिपटे कपड़ेनुमा झरोंखों को बौरा ने अपनी शाल के पट से बंद कर दिया था। आज पहली बार उसके चेहरे पर मुस्कुराहट के बजाय गंभीरता दिख रही थी और आसपास के तमाम हंसने वाले चेहरे जैसे खुद पर शर्मिन्‍दा थे।
  


(चित्र गूगल से साभार ) 

सोमवार, 21 सितंबर 2015

उड़न परी : लघुकथा

“ममा, मैं सलवार-कुर्ता नहीं पहनूँगी, मुझे गर्मी लगती है इसमें।” दस साल की आहना ने ठुनककर कहा।

“बेटा ज़िद्द नहीं करते, जल्दी से पहन लो, रमा आंटी के यहाँ पार्टी में चलना है। अगर हम देर से जायेंगे तो उन्हें बुरा लगेगा।” शिखा ने बेटी को प्यार से समझाया।

“नहीं, मुझे नहीं जाना पार्टी-शार्टी में, मेरी सब फ्रेंड्स फ़्राक, स्कर्ट पहनती हैं, आप मुझे सिर्फ सलवार-कुर्ता पहनने को कहती हो । वे सब पार्क में खेलती हैं, आप मुझे वहाँ भी नहीं जाने देती हो, क्यों?” आज आहना के सब्र का बाँध जैसे टूट पड़ा था।

“क्योंकि तुम सलवार-कुर्ते में इतनी प्यारी लगती हो कि पूछो मत, रमा आंटी ने भी कल मुझसे यही कहा।” बेटी को बहलाते हुए शिखा बोली।

“एकदम झूठ !” आहना ने माँ की बात को समझते हुए, अपनी नाराज़गी को छुपाते हुए कहा।

“एकदम सच्ची।” अपने गले को चुटकी से पकड़ते हुए शिखा ने कहा। फिर दोनों खिलखिला पड़ीं।

लेकिन शिखा के चेहरे से साफ़ झलक रहा था कि उसके अंदर भीषण संग्राम छिड़ा हुआ है। शादी के तीसरे साल पति की अचानक मृत्यु और फिर छः साल की आहना के साथ दूर के रिश्तेदार के उस दुर्व्यवहार ने उसे झिंझोड़ डाला था। जैसे-जैसे आहना बड़ी हो रही थी उसके मन का भय दिन-ब-दिन उसे और जकड़ता जा रहा था। वह उसे हर तरह से दुनिया की नजरों से दूर, ढक-मूँदकर रखना चाहती थी। यही सब सोचकर वह आहना के खेलने-कूदने, पहनने-ओढ़ने पर पाबंदियाँ लगाती जा रही थी। अक्सर उसके साथ काम करने वाली सहेलियाँ भी उस पर पिछड़ी, दकियानूसी होने का आरोप लगातीं, किन्तु वह सब हँसी में उड़ा देती थी। हालाँकि कभी-कभी तो उसे स्वयं लगता कि वह अपने हाथों से अपनी मासूम बच्ची का गला घोंट रही है।

अचानक शिखा की तन्द्रा टूटी। वे पार्टी में पहुँच गए थे। वहाँ बड़ी रौनक थी। खुले वातावरण में मधुर संगीत और बेला की सुगंध, मन, मस्तिष्क दोनों को ताज़गी प्रदान कर रहे थे। रमा ने आहना और शिखा का स्वागत किया। अपनी बेटी वैष्णवी से मिलवाया। आधुनिक लिबास में वैष्णवी एक परी जैसी लग रही थी। उसे देख शिखा जैसे मन्त्रमुग्ध सी हो गई। वह वैष्णवी के रूप में आहना की कल्पना करने लगी और फिर अचानक ही उस भयावह हादसे की याद से सिहर उठी।

तभी मंच पर पार्टी आरम्भ होने की घोषणा के साथ रमा और वैष्णवी से केक काटने का अनुरोध किया गया। दोनों ने मिलकर केक काटा, सारा लॉन तालियों से गूँज उठा।

रमा ने माइक पर कहा, “देवियों और सज्जनों, मैं आप सभी का अभिवादन करती हूँ। मुझे यह बताते हुए बहुत खुशी हो रही है कि मेरी बेटी वैष्णवी ने आई. पी. एस. की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है। वह अपने जीवन में इसी तरह सफल होती रहे, आप उसे आशीर्वाद प्रदान करें।”

तभी आगे बढ़कर वैष्णवी ने माँ के हाथ से माइक ले लिया और बोली, “लेकिन मैं आज जिस मुकाम पर हूँ, उस तक पहुँचाने के लिए मेरी माँ ने बहुत कष्ट सहे। बाधाओं और समाज की तमाम वर्जनाओं से मुकाबला करते हुए मेरी हर ख्वाहिश पूरी की। आज मैं आप सबको बताना चाहती हूँ कि जब मैं आठ बरस की थी तब एक ऐसे हादसे का शिकार हुई जिसे हमारा समाज किसी लड़की के जीवन को समाप्त करने के लिए पर्याप्त मानता है। लेकिन मेरी माँ ने मुझे उस अन्धकार से निकाला, कैसे, यह मैं अब भी समझने की कोशिश कर रही हूँ।....माफ करना माँ, मैंने आपकी डायरी पढ़ ली है...... ।’’ कहते हुए उसका गला रुँध गया।

पार्टी में एक क्षण के लिए सन्नाटा छा गया, और अगले ही क्षण तालियाँ गड़गड़ा उठीं। वैष्णवी अपनी माँ से लिपट गई। वहां मौजूद लगभग सभी की आँखें भीग गईं। और शिखा तो जैसे सुन्न ही पड़ गई। लेकिन अगले ही पल जैसे उसने कोई प्रण कर लिया था। वह आहना को गले लगाते हुए बोली, “कल हम अपनी आहना के लिए ढेर सारी फ़्राक और स्कर्ट्स लेने चलेंगे।”

“सच्ची ममा !” आहना का चेहरा गुलाब की तरह खिल उठा। वह दुपट्टे को हाथ में फैलाकर ऐसे दौड़ने लगी जैसे वह उड़ान भरने जा रही हो।

(चित्र गूगल से साभार )