सोमवार, 18 अप्रैल 2022

जुगलबंदी :

गली में बसा एक अलहदा सा नुक्कड़। जिसके एक ओर लाला की सट्टी और उसके ठीक सामने हकीम सैफ़ू मियाँ का दवाखाना।

बस यूँ समझ लीजिये जैसे चाय में अदरक और इलायची।
सुबह जैसे ही लाला की भट्ठी सुलगती ठीक उसी समय सुनाई देता हकीम सैफ़ू मियाँ का यह प्रभाती जुमला।
"लाहौल विला कुव्वत!...इस लाला की पकौड़ियों ने तो सारे शहर का हाजमा बिगाड़ रखा है। मनहूस के बदबूदार धुएँ से न मालूम कब निजात मिलेगी...या अल्लाह!"
"मियाँ, पकौड़ियों से तो बस हाजमा ही बिगड़ेगा लेकिन तुम्हारी इन आदम जमाने की दवाओं से तो सारा शहर ही सिधार जाए, राम-राम!"
इसके साथ ही शुरू हो जाती है नुक्कड़ की राग भैरवी।
देखते-देखते एक तरफ सैफू मियाँ और दूसरी तरफ लाला का पक्ष लेने वाले नुक्कड़ के दूसरे बाशिंदों के बीच मुकाबला आरंभ हो जाता। जिसे सुन लाला की पकौड़ियाँ मस्त हो तेल में थिरकती जातीं।
इधर बीच हुआ यह कि दो-चार रोज से सैफ़ू मियाँ का दवाखाना नहीं खुला।
आज जब शीबू चाय का ग्लास भर रहा था तो लाला ने आदतन अपनी निगाही चिड़िया हकीम के दवाखाने की ओर उड़ाते हुए पूछा,
"क्या बात है आज भी हकीम मियाँ नहीं आए?"
"का पता...जाड़ा आ रहा है...बूढ़ी हड्डियाँ हैं...का जाने ठंडी पड़ गई हों..."
"क्या कहता है!..तेरा दिमाग़ तो ठिकाने में है!"
"काहे? हकीम मियाँ तुम्हारे रिस्ते में हैं का?" शिबू आँख मारते हुए दुकानदारों को चाय पहुँचाने निकल लिया।
"लाला, आजकल पकौड़ियों में वो वाली बात नहीं
रही।" पुस्तक भंडार वाले मिश्रा जी ने प्लेट सरकाते हुए उलाहना दी।
"जब से मियाँ का दवाखाना बंद है, लाला की पकौड़ियाँ बीमार हो गई हैं।" शीबू ने शिगूफा छोड़ा।
"बीमार होएँ मेरे दुश्मन...चल भाग यहाँ से!" लाला ने झुंझलाहट में पकौड़ियों के घोल में मिर्च का पैकेट उलट दिया।
लाला का चेहरा ऐसा दिख रहा था जैसे किसी की मातमपुर्सी से लौटे हों। उन्होंने दुकान जल्दी बढ़ा दी और साइकिल उठा कर घर की ओर चल दिए।
कुछ ही देर में वे एक गली में थे। साइकिल खड़ी कर चोर निगाहों से इधर-उधर देखा। सामने एक पुरानी सी खोली थी। लाला ने दरवाजे पर हौले से दस्तक दी।
"चले आओ..." अंदर से धीमी-सी, बीमार, कफ़युक्त आवाज़ आई।
खोली का दरवाज़ा भिड़ा हुआ था। लाला अंदर दाखिल हो गए।
"क्या मियाँ... जिंदा तो हो..."
"अमां लाला तुम हो!... अच्छा! तो ये देखने आए हो कि बुड्ढे में अभी दम बचा है या नहीं ..."खाट पर लेटे-लेटे सैफ़ू मियाँ ने जुमला कसा, "घबराओ मत लाला!...बिना तुम्हें बरबाद किए इस बूढ़े को जन्नत नसीब न होने वाली..."
यह कहते हुए सैफ़ू मिया अपने हाथ बढ़ाने को हुए कि लाला ने लपककर उनकी हथेलियाँ अपनी हथेलियों में दबोच लीं।
"मियाँ, बरबाद होवें हमारे दुश्मन!" फिर दोनों ठठाकर हँस दिए।
कुछ दिनों बाद नुक्कड़ इन दोनों के आलाप से फिर गुंजायमान हो उठा।

5 टिप्‍पणियां:

  1. वाह! भाईचारे और आपसी सौहार्द को बनाए रखने के लिए कितना ज़रूरी है ऐसे बुजुर्ग लोगों का समाज में होना

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  2. ऐसी जुगलबंदी चलती रहनी चाहिए ।
    सार्थक संदेश देती लघु कथा। ।

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  3. ऐसी दोस्ती चलती रहे तो देश में दंगे फसाद ही न हो।बहुत सुंदर।

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  4. भाईचारा ही तो सामाजिक व्यवस्था की रीढ़ की हड्डी है।बेहतरीन शिल्प में लिखी गई भावपूर्ण प्रस्तुति अर्चना जी।बहुत आभार और बधाई।

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