रविवार, 1 अक्टूबर 2017

पलमानेन्‍ट : लघुकथा

"सबेरे से कुछ बिका कि नहीं रे?" बिसुना खी खी करता हुआ शामली को छेड़ने लगा।

"ये लो...तो का नाहीं? दुकान रखते ही ग्वालिन, गनेशा और ऊ बड़का सिपहिया फौरन बिका गया !"

"अच्छा! ई बात!...तो ऊ चटख रंग वाली मातारानी के कोई काहे नहीं ले गया?...हेहेहे...!"

"लोग ले जायेंगे उनको भी...का पता अभी जरूरत ना हो?" आखिरी शब्द धीमें से बोलते हुए शामली पास रखी माता रानी की मूर्ति को सामने खिसका कर झाड़ने-पोछने लगी। 

"हीहीही, जरूरत? ऊ गवालिन तिख्खी नाक-नकस वाली रही तबै बिक गई...और ई माता रानी की नाक तुमरे पर गई हैं...हीही...तनी मोटी-मोटी, पसरी-पसरी है।" बिसुना ने फिर छेड़ा। 

"चल भाग हियाँ से...माता रानी के लिए अइसा बोल रहे हो? तुम्हारी आँख फूटे...." शामली ने घुड़की देते हुए घूरा। 

"लेव तो का झूठ बोले हम...पसरी नहीं है का? हमारी माता रानी देखी थी तू!...कितनी सुहा रही थीं!...तिख्खी नाक...फौरन सेठ लई लिए!" 

"सेठ लई लिए...हुँह! मटीरल कितना घटिया रहा! कोई छू दिया तो धड़ाम...और रंग तो हाथ लगते ही उतर जाएगा...!"अबकी शामली ने पैतरा बदला। 

"हाँ आँ...तो कौन सा पलमानेन्ट रखना है? और तुम्हारी मातारानी?...अच्छा मटीरल से का हुआ ...मोटी-पसरी नाक ना, जिसे कोई पूछा तक नहीं...हिहीही!" बिसुना फिर खींखीं किया। 

अबकी शामली ने धेला उठा कर बिसुना के पैरों पर दे मारा। बिसुना कूद कर हट गया और अंगूठा दिखाते हुए अपनी दुकान की ओर भाग गया। 

शामली की आँखों में आँसू आ गए। वह हताश हो कर बैठ गई। देवी की मूर्ति को एकटक निहारा और दोबारा कपड़े से झाड़ते हुए बड़बड़ाने लगी,
 "बाह रे आदमी जात...नाक-नकसा बिगड़ने से न हमें कोई पूछता है और न मातारानी को...कहा था दद्दा से कि मिट्टी में पानी संभाल कर डारो...अब उनको भी का कहें, आँख से दीखे तब ना...लेकिन चिंता न करो मैय्या, हम करते हैं कुछ...पलमानेन्ट!"

शामली ने मूर्ति को बोरी में डाल लिया। आस-पास खेल रहे बच्चों की सहायता से मूर्ति को सिर पर रखा और रोबीली चाल चलते हुए मुड़ गई बस्ती की ओर। 

आज दशमी है। नगर के सभी पण्डाल निर्जन पड़े हैं। प्रतिमाएँ विसर्जित हो चुकी हैं। वहीं बस्ती के अर्धनिर्मित मन्दिर में रौनक है। आज उसको अपनी देवी मिल गई हैं।