बुधवार, 9 अक्टूबर 2013

अमीर कृतियों के गरीब रचनाकार

   


साल भर से जिसकी प्रतीक्षा रही ग्यारहवां राष्ट्रीय  पुस्तक मेला हमारे शहर लखनऊ में  लगा और दस दिनों बाद सफलता पूर्वक ख़त्म हुआ ।   देश-दुनिया के विभिन्न  लेखकों-लेखिकाओं , कवियों-कवित्रियों की अनमोल एक से बढ़कर एक  रचनाएं देखकर तो बस यही जी करता था कि किसको खरीदें किसको छोड़ें, आखिर कार जेब को देखते हुए साल भर का कोटा ले ही आई। 

बड़ी कमी खलती है हमारे शहर में एक अच्छे पुस्तकालय की । दो पुस्तकालय थे वो भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए । इस भ्रष्टाचार ने हर जगह  जड़ें जमा रखीं हैं । जिन पुस्तकों में इतना ज्ञान भरा है वे भी नहीं बच पाईं इसके दुष्प्रभाव से.… 

… खैर मैं यहाँ जो बात करने जा रही हूँ वह इन सबसे परे है । पुस्तक मेले की ओर  फिर चलते हैं । पुस्तकों की स्टॉलोँ  पर घुमते-घुमते एक विचार बार-बार आ रहा था और एक ही बात जेहन में गूँज रही थी.…. "अमीर कृतियों  के गरीब रचनाकार "…. सच.. आज ये   पुस्तकें इतने ऊँचे दामों  पर बिक रही हैं  जिसके   अधिकतर  सृजनकर्ताओं को ताउम्र  कितने फाके करने पड़े थे । 

साहित्य सम्राट मुंशी प्रेमचंद की  रचनाओं से लगभग हर स्टॉल भरा पड़ा था लेकिन इस महान  रचनाकार का जीवन अभावों में गुज़रा ।  उनके सुपुत्र अमृत राय द्वारा लिखित उनकी जीवनी  "कलम का सिपाही " में वर्णित एक वक्तव्य में  ….  ' जीवन के  अंत में  मृत्यु शय्या पर पड़े प्रेम चंद जी का जैनेन्द्र से यह कहना कि … " अब आदर्शों से काम नहीं चलेगा "…यह उनके अंदर के विश्वासों के स्खलन की सूचना देता है कि गरीबी ने  कितना  तोड़ दिया था उन्हें लेकिन फिर भी  कलम चलती रही अंत तक। 
…. यही नहीं वसंत के अग्रदूत महाकवि निराला जी के  जीवन के बारे में महादेवी वर्मा के शब्दों में.…" आले पर कपड़े की  आधी जली बत्ती से भरा पर तेल से खाली मिट्टी का दिया , रसोईघर में अधजली दो-तीन लकड़ियाँ, खूँटी पर लटकती आटे  की छोटी सी गठरी मानो उपवास चिकित्सा के लाभों की व्याख्या कर रहे थे  "।
.…. इसी प्रकार नई कहानी आंदोलन के महत्वपूर्ण कहानीकार  हरिशंकर परसाई जी के बारे में कहा गया है कि उन्होंने जीवन में तीन विद्द्याएं सीखीं … एक विद्द्यार्थी जीवन में  बिना टिकट यात्रा करना , दूसरी निःसंकोच उधार मांगना और तीसरी बेफिक्री …इसके बिना या तो वे मर जाते या पागल हो जाते।
 गरीबी पर बात करना और है जिंदगी बिताना और बात है।  इसी तरह से न जाने कितनी विभूतियाँ अपने प्रकाश से दूसरों को तो रोशन कर रही हैं खुद के शरीर को जला कर, उनको तेल नसीब नहीं हुआ या ये कह सकते हैं कि उसके लिए उन्होंने कभी परवाह ही नहीं की।  

कैसी विडंबना है यह  कि ऐसे-ऐसे साहित्य रत्नों से समृद्ध   साहित्य का  रत्नाकर अपने इन मोतियों के लिए एक जल की बूँद  भी नहीं मुहैया करा सकता  ।  

2 टिप्‍पणियां:

  1. प्रेमचंद और निराला जैसे सच्चे साहित्यकार आज ढूँढना बेमानी है।।।आज तो नाम देखकर किताबे खरीदते हैं लोग ....देखा-देखि चलती हैं ..बहुत बढ़िया संस्मरण ....

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  2. महान रचनाकारों की पुस्तकों को आसान दाम पर सभी को उपलब्ध कराने का जिमा ऐसे प्रशासकों ओर परकाश्कों को लेना होगा ... जिससे साहित्य सभी की पहुँच तक पहुंचे ...

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