सोमवार, 31 अगस्त 2015

फुहारें : लघुकथा

मैं सुबह जल्दी-जल्दी स्नान कर राखी बंधवाने के लिए बैठक में आ कर छोटी बहन का बेसब्री से इंतज़ार करने लगा । हमेशा राखी बाँधने के बाद उपहार के लिए उसका आँखों को नाच-नचा कर तकरार करना मुझे बड़ा भाता था, इसीलिए मैं हमेशा उपहार छिपा देता था। आज भी उसके मनपसंद उपहार को मेज के नीचे छिपा दिया। जब काफ़ी देर हो गई और वह राखी लेकर नहीं आई तो मैंने उसे आवाज़ दी –


“छोटी !”

“भैया, छोटी तो मझले भैया के यहाँ गई है, राखी बांधने ।” छोटा भाई तैयार होते हुए बोला। टाई बांधते हुए छोटे की कलाई पर बंधी राखी देख मुझे थोड़ी मायूसी हुई।

“ओह, हमेशा सबसे पहले मुझे राखी बांधती थी ना इसलिए मैने सोचा कि उसे आवाज़ दे दूँ।” मैंने अपने को संयत करते हुए कहा।

“बेटा, छोटे और मझले को ऑफिस जाना है न ।” माँ समझाते हुए बोली।

माँ के ये शब्द सुनकर मुझे थोड़ा आघात सा लगा। मुझे याद आया कि हां सही बात है मुझे कौन सा ऑफिस जाना है। बेरोजगारी का ख्याल आ गया। मैं अपनी सूनी कलाई को देख होठों पर फीकी सी मुस्कान लाते हुए मन ही मन बुदबुदाया –

"कुछ दिन पहले तक मुझे भी ऑफिस जाने की जल्दी रहती थी।"

मैं वापस बैठक में आकर मेज के नीचे छिपाए उपहार को उठाने के लिए झुका ही था कि तभी -

“भैया !” पीछे से छोटी की पुकार ने मुझे चौंका दिया ।

छोटी सामने खड़ी खिलखिला रही थी। मैं हक्का-बक्का मामला समझने की कोशिश करने लगा। वह अपनी गोल-गोल आँखों को नचाते हुए बोली –

“भैया, हमेशा मैं सबसे पहले आपको राखी बांधती थी न, इस बार मैंने सोचा क्यों न उल्टा किया जाए। पहले छोटे भैया, फिर मंझले और फिर मेरे प्यारे बड़े भैया।’’

उसी समय माँ, मझले और छोटे भी बैठक में आ गए। छोटा बोला -

“भैया इस छोटी की बच्ची के ड्रामे ने इस बार हम सब को भी चक्कर में डाल दिया। यह मानी ही नहीं।’’

‘’लाओ अब जल्दी से अपनी कलाई आगे करो।’’ छोटी ने अपनी आंखे नचाते हुए कहा।

बैठक में गूंज रहे ठहाकों के बीच मैंने अपनी संकीर्ण सोच को जैसे-तैसे छिपाते हुए छोटी की नाक पकड़ कर जोर से हिला दिया।

रविवार, 23 अगस्त 2015

‘हम-परवाज़’ : लघुकथा

आज दोनों पहली बार रेस्ट्रॉ में मिल रहे थे । खाना ख़त्म करने के बाद लड़के ने इधर-उधर देखा फिर लड़की से कुछ कहा और उठकर कहीं चला गया । थोड़ी देर बाद वह कोल्ड ड्रिंक लेकर आया । देते समय थोड़ी सी कोल्ड ड्रिंक लड़की के कपड़ों पर छलक गई । लड़के ने फ़ौरन अपना रुमाल निकाल कर उसकी ओर बढ़ाया । लड़की ने कपड़ों पर छलकी कोल्ड ड्रिंक साफ़ की । थोड़ी देर बाद दोनों उठकर रेस्ट्रॉ के बाहर आ गए । थोड़ी दूर चलने के बाद लड़की ने लड़के से कुछ कहा फिर उसे वहीँ रोककर वापस रेस्ट्रॉ के अन्दर चली गई। शायद वह कुछ भूल गई थी। लड़का थोड़ी देर बाहर खड़ा रहा, फिर वह भी रेस्ट्रॉ के अंदर जाने लगा तभी लड़की वापस आ गई ।

"क्या हुआ ? वापस क्यों चली गई थी तुम ?" लड़के ने एकबार उसकी तरफ, एकबार रेस्ट्रॉ के दरवाज़े की तरफ देखते हुए पूछा ।

लड़की ने बिना कुछ कहे अपने पर्स से एक सिम निकालकर लड़के के हाथ में थमा दिया और जरा गुस्‍से में बोली, “यह क्‍यों दिया तुमने मुझे? ”

“ये तुम्हारे पास कैसे....” शब्द जैसे लड़के के कंठ में अटक के रह गए ।

“जब तुमने मुझे रुमाल दिया था तो यह उसमें था।” लड़की के होठों पर शरारत भरी मुस्कराहट तैर रही थी।

लड़का अभी संभल भी नहीं पाया था कि लड़की ने अपने पर्स से एक मोबाईल भी निकाल कर लड़के के हाथ में थमा दिया। लड़का मोबाईल देख कर हक्का-बक्का रह गया ।

"यह वही मोबाईल है न, जिसको तुमने रेस्ट्रॉ के बिल के पैसे कम पड़ने पर, बदले में दिया था?" लड़की ने रोष भरे अंदाज़ में पूछा ।

"वो, वो तो..." अब तक लड़का एकदम पानी-पानी हो चुका था।

“क्या हमारे प्यार का पंछी एक पंख से उड़ेगा ?” लड़की की आँखों में बेइन्तहा प्यार उमड़ आया था।

मंगलवार, 18 अगस्त 2015

'गुनगुना एहसास’ : लघुकथा

एक तो रात का समय ऊपर से जनवरी की हाड़ कंपा देने वाली ठण्ड। साईकिल चलाते हुए हैंडिल पर मेरी उंगलियाँ जमकर काठ हुई जा रहीं थीं। रास्ते में चाय की गुमटी देखकर मैंने सोचा थोड़ी गर्माहट ले ली जाय, सो चाय का ऑर्डर दे वहाँ रखी बेंच पर बैठ गया।

एकाएक मेरी नजर सामने, सड़क के पार, एक मैले-कुचैले मरियल-से कुत्ते पर पड़ी। मैंने उसे ग़ौर से देखा। यह वही कुत्ता था जिसे हमारे मोहल्ले के एक संभ्रांत परिवार ने कुछ माह पहले मंगवाया था। आरम्भ में तो उसे बड़े लाड़-प्यार से रखा गया, लेकिन माह भर बीतते-बीतते डंडे से उसकी धुनाई होने लगी और फिर एक दिन उसे यह कह कर घर से बाहर कर दिया गया कि वह देशी नस्ल का है।

सामने ही, एक व्यक्ति ठेले के चारों ओर बोरे लटका कर अपना आशियाना बनाने की कोशिश कर रहा था । पास में ईंटों से बने चूल्हे पर रखी देगची में कुछ पकाने को रखा हुआ था। वह कुत्ता बदहवास-सा बार-बार उस देगची की ओर जाता और वह व्यक्ति हर बार डंडे को ज़मीन पर पटक कर उसे भगा देता था।

पक जाने के बाद वह व्यक्ति देगची से खिचड़ी निकालकर खाने लगा। कुछ ही दूरी पर डरा-सहमा कुत्ता अपना मुंह ज़मीन पर टिकाए, पूंछ हिलाता हुआ कूं-कूं करता याचक दृष्टि से उसे देखे जा रहा था। खाते-खाते उस व्यक्ति ने अख़बार के एक टुकड़े पर थोड़ी खिचड़ी रखकर उसकी ओर सरका दी । कुत्ता दबे पाँव पूँछ हिलाता हुआ उसके निकट सरक आया और अख़बार पर पड़ी खिचड़ी खाने लगा।

“साहब, चाय।” चाय वाले की आवाज आई।

उसके हाथ से चाय के गिलास को लेकर मैं अपनी दोनों हथेलियों के बीच जकड़कर बैठ गया। गले में उतारने से पहले जरूरी था कि चाय की गर्मी से उँगलियों को सीधा कर लिया जाए। तीन मिनट का गिलास इसलिए पाँच से भी ज्यादा मिनट में खाली हुआ। गिलास को गुमटी पर रख मैंने चाय के पैसे चुकाए और बेंच से खड़ा हो गया।

चलते-चलते मैंने अनायास ही आख़िरी बार अपनी निग़ाह सामने ठेले की ओर डाली। वह व्यक्ति ठेले की ओट में बिछे बोरे पर एक पुरानी चीकट-सी रज़ाई में गठरी बन चुका था। कुत्ता उसके पैरों के पास रज़ाई से बाहर रह गए बोरे पर सिमटा पड़ा था। तभी उस व्यक्ति ने पैर से रज़ाई का कोना कुत्ते की पीठ पर डाल दिया, कुत्ता गोलमोल होकर उसमें दुबक गया।

चित्र गूगल से साभार 

‘जलकुंभी’ लघुकथा

“उफ़्फ़ ! क्या मुसीबत है, लगता है आज का दिन ही मनहूस है !“

मैं झुंझलाते हुए कार से उतरी । सुबह अस्पताल से आई खबर ने मन को पहले ही खिन्न कर रखा था, ऊपर से रास्ते में कार अलग ख़राब हो गई । हाइवे पर आती-जाती गाड़ियों को हाथ दिखाकर रोकने की कोशिश की किन्तु वे सभी सनसनाती हुई निकल गईं । पास में मैकेनिक की एक गुमटी थी, पर वह बंद थी । हाइवे से उतर कर थोड़ी दूर चलने पर एक झोपड़ा दिखाई दिया, मैं उधर चल पड़ी । उसके पास जाने पर ढोलक की थाप और औरतों के गाने की आवाजें सुनाई देने लगीं, शायद कोई उत्सव मनाया जा रहा था । झोपड़े के बाहर खटोले पर एक बूढ़ी बैठी थी ।

मैंने उससे पूछा –

“अम्मा, मेरी कार ख़राब हो गई है, धक्का लगाने के लिए अपने लड़कों को भेज देंगी ?”

“आइये बीबी जी, बड़े संयोग से आपके पाँव हमारे झोपड़े में पड़े हैं, बैठिये ।” चहकते हुए बूढ़ी ने एक छोटी सी चौकी की ओर इशारा किया ।

“अम्मा ! कोई मदद मिल सकती है कि नहीं ?” मेरी झुंझलाहट और बढ़ गई ।

“अरे बीबी जी ! लीजिये पहले मुँह तो मीठा कीजिये !“

अब मुझे उसपर क्रोध आने लगा, मैं वापस हाइवे की ओर जाने के लिए मुड़ने लगी तो
उसने हाथ के इशारे से रोकते हुए आवाज़ दी ।

“ओ संतोषी ! सड़क पर बीबी जी की कार खराब हो गई है, जा जाकर ठीक कर दे और
धक्का मारने के लिए पिंकी, पूजा को भी लेती जाना !“

“अच्छा अम्मा !” झोपड़े के अंदर से आवाज़ आई ।

मैं हतप्रभ सी कभी उसे कभी झोपड़े से निकल कर आती हुई उन तीनों युवतियों को देखने लगी ।

“अरे बीबी जी आप चिंता न करो, ये मेरी बहू बहुत अच्छी मैकेनिक है । ब्याह कर आते ही मैंने बेटे से कहकर इसे भी मैकेनिक का काम सिखवा दिया था, अब ये उससे भी ज्यादा होशियार हो गई है ।“

“अच्छा, ये तो बहुत अच्छी बात है !!!” मैंने आश्चर्य से उसे देखा ।

“आज मेरी पोती का जन्मदिन है इसलिए ये काम पर नहीं गई और पिंकी, पूजा मेरी बेटियाँ हैं जो ससुराल से आई हैं, शाम को पार्टी है ना ।“ उसने पोपले मुंह पर मुस्कराहट बिखेरते हुए कहा ।

न जाने क्या था उसकी मुस्कराहट में जिसने मेरे मन के सरोवर में उग आई जलकुम्भियों को उखाड़ फेंका था । अब मुझे अस्पताल पहुँचने की जल्दी थी, बहू के साथ मिलकर पार्टी का मेन्यू जो तैयार करना था ।