शुक्रवार, 10 जून 2016

सज़ा :लघुकथा

विद्यालय में वार्षिक परीक्षाएँ चल रहीं थीं। मैं स्टाफ़ रूम में उत्तर पुस्तिकायें जाँच रही थी। कुछ समय बाद पास के कक्ष से सहकर्मी सुमन की ज़ोर-ज़ोर से बोलने की आवाज़ आयी। मै सुनने की कोशिश करने लगी किन्तु कुछ स्पष्ट नहीं हुआ। मैं स्टाफ़ रूम से बाहर आ गई। मैंने देखा कि सुमन एक बच्चे का हाथ पकड़ कर लगभग खींचते हुए प्रधानाचार्य के कार्यालय की ओर जा रही थी। वह बच्चा रोते हुए कुछ कह रहा था। मैने परीक्षा कक्ष में ड्यूटी कर रही एक अन्‍य अध्यापिका से पूछा, “क्या हुआ सीमा ?”

“अरे, वह बच्चा नोटबुक लेकर नक़ल कर रहा था।” मैं थोड़ा परेशान हो उठी। अचानक मेरे कदम प्रधानाचार्य के कार्यालय की ओर बढ़ने लगे। साँसों की रफ़्तार तेज़ होने लगी थी। पचास मीटर का फ़ासला पचास किलोमीटर लगने लगा था।

मस्तिष्क में, कक्षा छह की वार्षिक परीक्षा की घटना चलचित्र की भांति चलने लगी। विज्ञान की परीक्षा थी। मुझे एक चित्र के भागों के नाम नहीं याद हुए थे। मैंने नक़ल के इरादे से अपनी नोट बुक डेस्‍क में रख ली थी। लेकिन उसे देखने की हिम्मत नहीं हुई। मुझे जो आता था, उसके आधार पर ही प्रश्‍नपत्र हल करती रही। लेकिन किसी लड़की ने नोटबुक रखते देख लिया था। उसने अध्यापिका से शिकायत कर दी। अध्यापिका ने मेरी उत्तर पुस्तिका छीन ली। मुझे सबके सामने बहुत अपमानित किया। मैं चुप थी। क्योंकि खुद को निर्दोष साबित करने का मेरे पास कोई प्रमाण नहीं था। उस अपमान ने मुझे बुरी तरह झिंझोड़ दिया था। उससे उबरने में मुझे खासा समय लगा था।

“क्या एक छोटी सी ग़लती की सज़ा ऐसी होनी चाहिए जिससे किसी का आत्मविश्वास ही खो जाये। नहीं, अब मैं ऐसा नहीं होने दूँगी !” मैं लगभग चीख़ उठी।

मैं बिना इजाज़त लिए प्रधानाचार्य के कक्ष के भीतर चली गई। मैंने देखा प्रधानाचार्य उस बच्चे को अपनी बांहों में लेकर बड़े प्यार से समझा रहे थे, “बेटा आपको जो भी, जैसा भी याद आये आप अपनी उत्तर पुस्तिका में लिख दीजिये। हमें वही उत्तर चाहिए जो आप लिखेंगे।''

बच्चे ने हामीं में सिर हिला दिया।

उसकी ही नहीं, मेरी पलकें भी अभी नम थीं, लेकिन हम दोनों के होठों पर मुस्कान खिल आई थी।




1 टिप्पणी: