रविवार, 27 नवंबर 2016

‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ (लघुकथा)

“अरे, आपने अभी तक कुछ नहीं खाया?” घर आते ही जया ने डाइनिंग टेबल पर निगाह डालते हुए आरना से पूछा।

“-------------“

“आरना, मम्मा कुछ पूछ रही हैं न।”

“-------------“ आरना अनसुना कर रिमोट के बटन दबाती रही।

“ओ-ओ ! मेरी बेबी नाराज़ हो गई क्या ?” आरना को बाँहों में भरते हुए जया ने पुचकारा।

“मैं आपसे बात नहीं करूँगी।”

“मम्मा से बात नहीं करोगी, क्यों ?” जया ने उसको चूमते हुए पूछा।

“क्योंकि आप मुझे पार्क में खेलने नहीं जाने देती हो।”

“अरे, तो जब आपको खेलने के लिए टेरेस है, बालकनी है फिर पार्क में जाने की क्या ज़रूरत?”

“सब बच्चे पार्क में खेलते हैं, लेकिन आप मुझे टेरेस पर खेलने को बोलती हो।”

“वो इसलिए बोलती हूँ कि...कि...कि...” कहते हुए जया ने आरना के पेट में गुदगुदा दिया। आरना खिलखिलाकर हँस पड़ी।

“आप रेकेट लेकर टेरेस पर चलो, मम्मा अभी हाथ-मुँह धोकर आती है, फिर दोनों ख़ूब खेलेंगे, ओके !”

“ओके मम्मा, जल्दी आना।”

आरना को भेजकर जया हाथ-मुँह धोने लगी। आइने में चेहरा देखते हुए उसे ससुराल की याद हो आई।

“अविनाश, तुम्हें इस लड़की और हममें से एक को चुनना होगा।“

“पिता जी, आख़िर जया में क्या कमी है ?”

“कमी जया में नहीं, उसके स्टेटस में है।“

“मैं जया को नहीं छोड़ सकता।“

आरना के जन्म के बाद उसने अविनाश के चोरी-छिपे सास-ससुर को मनाने की नाकाम कोशिश की थी। अविनाश को जब यह बात पता चली तो वह बहुत क्रोधित हुआ था। जब अविनाश का एक्सीडेंट हुआ था तो उसने उन्हें खबर करने को भी मना कर दिया। अविनाश चला गया।

“हा हा हा...दादू हार गए ! दादू हार गए !” आरना की आवाज़ ने उसे वर्तमान में ला खड़ा किया।

“दादू ! ये आरना किसे पुकार रही है ?” कहते हुए जया जल्दी-जल्दी टेरेस की सीढियाँ चढ़ने लगी।

“आरना !”

“मम्मा ! देखो मैंने दादू को हरा दिया !”

“मैं शिवाकांत हूँ। बगल वाले फ़्लैट में रहता हूँ।”

“आरना, बेटा अंकल को क्यों परेशान किया ? खेलने के लिए मम्मा आ रही थी ना।”

“खेलने दीजिये ना। मेरी पोती भी इसी के बराबर है। लेकिन...” कहते हुए शिवाकांत का गला भर्रा गया।

“क्या हुआ ?” जया ने प्रश्न किया।

“मेरे बेटे ने अमेरिका की सिटिज़नशिप ले ली है।”

“ओह !”

“वैसे तो अकेले समय काटने की आदत पड़ गयी है। लेकिन जब आपकी बच्ची को खेलते देखता हूँ तो अपने को रोक नहीं पाता।”

“ये आपको परेशान करती होगी ?” जया ने आरना का सिर सहलाते हुए पूछा।

“अरे नहीं बेटी, इसके साथ खेलने से मेरे घुटने दुरुस्त हो गए।”

शिवाकांत जी के मुख से 'बेटी' शब्द सुनकर जया जैसे अपनेपन के भाव से भर उठी. उसने झुक कर उनका चरण स्पर्श कर लिया।

शिवाकांत जी की आँखों से वात्सल्य छलक उठा. उन्होंने उसके सिर पर हाथ रख दिया।

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