गुरुवार, 30 नवंबर 2017

हमसफ़र : लघुकथा

सुबह पाँच बजे
“श्याम, बेटा उठ ना, गुनगुना पानी और त्रिफला चूर्ण दे-दे मुझे!”
“ऊँम्म...अभी देता हूँ पिता जी!” 
“अरे बेटा, मेरी चाय में थोड़ी चीनी और डाल दे, फीकी लगती है!”
“पिता जी, चाय में पहले ही इतनी चीनी है!”
“अच्छा-अच्छा, नाराज़ क्यों होता है...अ...सुन वो अखबार बाहर आ गया हो तो लेता आ...साथ में चश्मा भी देता जा!”
“जी!” 

9 बजे
“बेटा, ऑफिस जा रहा है क्या! अच्छा सुन बाथरूम में गीजर चालू करता जा। भोला के आते ही मैं नहाने चला जाऊँगा वरना घूमने जाने में देर हो जाती है। और हाँ वो होम्योपैथ दवा जो घुटनों के लिए थी, वह भी शाम को आते वक्त लेते आना।”
“जी...लेता आऊँगा...अब मैं चलूँ?”
“हाँ-हाँ...जा। ब्रश में टूथपेस्ट लगा दिया है ना...!”
“अरे हाँ, पिता जी सब रख दिया है, पूजा के लिए आपकी आसनी, रामायण, लोटे में जल, गीजर चालू कर दिया है, तौलिया और कपड़े, ब्रश में टूथपेस्ट, मेज पर नाश्ता। बस आप भोला से माँगकर समय पर खा जरुर लेना। अब मैं निकलता हूँ!”
“अरे बेटा, एक काम और करता जा। एक नया जनेऊ भी खोल कर रखते जाना। जब से प्रोस्टेट की समस्या हुई है, कान पर चढ़ाने का समय ही नहीं रहता..!”
“ओह्हो पिता जी! अब जनेऊ ढूंढने में बस निकल जाएगी। आप भोला से कह दीजिएगा वह निकाल देगा।”

ऑफिस में
“श्यामलाल जी, आज ये फाइलें निपटानी हैं।”
“जी!”
“आज थोड़ा देर से घर चले जाइएगा। वैसे भी आपको तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। घर में पत्नी और बाल-बच्चे होते तो बात और थी। भाई, बेटा हो तो आप जैसा। अच्छा किया जो दूसरी शादी नहीं की। सब झंझटों से मुक्त। एक हम हैं...पहले ऑफिस की ड्यूटी बजाओ और फिर घर में पत्नी और बच्चों की।”
“जी...लेकिन पिता जी!”
“अरे हाँ...अब कैसी तबियत है उनकी? कोई काम वाला रख लो भाई उनके लिए। आपको भी आराम रहेगा।”
“जी रखा है...लेकिन वह केवल दिन में ही रहता है। और पिता जी किसी बाहर वाले के हाथ का खाना नहीं खाते। इसलिए..!”
“अरे श्यामलाल जी, फिर भी एक बूढ़े आदमी का काम ही कितना होता है।”
“जी अब वह तो मैं ही जानता हूँ।”

शाम सात बजे
“अरे बेटा दवा लाए क्या!”
“जी!”
“अच्छा! आधा कप पानी में पाँच बूँद अभी दे-दे!”
“...हुफ्फ्फ़...लाता हूँ...आsssह...!”
“क्या हुआ!”
“कुछ नहीं पिता जी। घुटनों में थोड़ा दर्द है!”
“ओssह!..तेरा भी तो उनचासवाँ लग गया है, और मैं हूँ कि अभी भी तुझे उन्नीस का समझ रहा हूँ। तू बैठ यहाँ। इसमें से पाँच बूँद तुझे भी देता हूँ!”
“इसकी क्या जरूरत है पिता जी!...मैं खुद ले लूँगा!”
“जरूरत है बेटा...और हाँ कल भोला से बोल देना कि दोनों समय का खाना वही बना दिया करे!”

(पत्रिका 'आधुनिक साहित्य'  अप्रैल-जून 2018 में प्रकाशित )

2 टिप्‍पणियां:

  1. पसंद आई। मेरी उम्र भी थोड़ी आस पास ही है, और घुटनों में हल्का दर्द महसूस करता हूं; तो अपने को कहीं जोड़ सका कहानी से। कभी ध्यान ही नहीं दिया था पहले कि तुम कहानियां भी लिखती हो।

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