दोपहर थी लेकिन आकाश में छाए बादल भोर का आभास करा रहे थे। मैं खिड़की के पास बैठी रेडियो के गीतों के साथ इस मोहक नज़ारे का आनंद ले रही थी। तभी मेरी निगाह बाउंड्री के बाहर एक युवक पर पड़ी। वह एड़ियाँ उचकाकर गमले से पौधे की टहनी तोड़ने की कोशिश कर रहा था। अक्सर लोग छोटे पौधों की टहनी कलम के लिए लेते ही रहते हैं। लेकिन मेरे देखते ही देखते उसने गमले से पूरा पौधा ही उखाड़ लिया। उखाड़ने के झटके से धक्का लगने से उस गमले के साथ दो और गमले भरभरा कर नीचे आ गिरे।
“अरे कलम चाहिए थी तो ले लेते। तुमने तो पूरा पौधा ही उखाड़ लिया। और..और ये गमले भी गिरा दिए!’’ मैं उस पर फट पड़ी।
“दीदी हम जाने नहीं थे। हमें लगा गमले में कई पौधे हैं...गलती हो गई...हम माफ़ी मांगते हैं।’’ वह हाथ जोड़ने लगा। उसके मुँह से शब्द अटक-अटक कर निकल रहे थे।
तब तक मेरी चिल्लाहट सुन कर भाई भी बाहर आ गया। गली से गुजर रहे लोग भी रुक कर देखने लगे। देखते-देखते दस-बारह लोग इकठ्ठा हो गए।
तब तक मेरी चिल्लाहट सुन कर भाई भी बाहर आ गया। गली से गुजर रहे लोग भी रुक कर देखने लगे। देखते-देखते दस-बारह लोग इकठ्ठा हो गए।
“चोरी कर रहे थे?” भाई ने घुड़कते हुए उसकी कमीज का कालर पकड़ लिया।
“नहीं, हम चोर नहीं हैं हमारा विश्वास कीजिए, हमसे पहली बार ऐसा हुआ।’’ यह कहते भर में उसकी कनपटी से पसीना बहने लगा। उसकी पतलून पैरों के काँपने की गवाही दे रही थी।
मैंने देखा वह सामान्य सा युवक साधारण किन्तु साफ़-सुथरे कपड़े पहने था। पहनावे से किसी दूसरे अंचल का लग रहा था।
“अरे छोड़ो, जाने दो उसे।’’ दरवाजे तक आ गए पिता जी ने भाई को आदेश देने जैसे स्वर में कहा।
भाई ने युवक का कालर छोड़ दिया। युवक पिता जी को देखते हुए हाथ जोड़ कर चला गया। गली में जमा हुए लोग भी चले गए। मैं भी अंदर आ गई। बाहर का नज़ारा अभी भी मोहक था। रेडियो पर गीत भी बज रहा था। लेकिन मन में जैसे कुछ चुभ रहा था।