गुरुवार, 26 अप्रैल 2018

फाँस

दोपहर थी लेकिन आकाश में छाए बादल भोर का आभास करा रहे थे। मैं खिड़की के पास बैठी रेडियो के गीतों के साथ इस मोहक नज़ारे का आनंद ले रही थी। तभी मेरी निगाह बाउंड्री के बाहर एक युवक पर पड़ी। वह एड़ियाँ उचकाकर गमले से पौधे की टहनी तोड़ने की कोशिश कर रहा था। अक्सर लोग छोटे पौधों की टहनी कलम के लिए लेते ही रहते हैं। लेकिन मेरे देखते ही देखते उसने गमले से पूरा पौधा ही उखाड़ लिया। उखाड़ने के झटके से धक्‍का लगने से उस गमले के साथ दो और गमले भरभरा कर नीचे आ गिरे।
“अरे कलम चाहिए थी तो ले लेते। तुमने तो पूरा पौधा ही उखाड़ लिया। और..और ये गमले भी गिरा दिए!’’ मैं उस पर फट पड़ी।
“दीदी हम जाने नहीं थे। हमें लगा गमले में कई पौधे हैं...गलती हो गई...हम माफ़ी मांगते हैं।’’ वह हाथ जोड़ने लगा। उसके मुँह से शब्द अटक-अटक कर निकल रहे थे।

तब तक मेरी चिल्लाहट सुन कर भाई भी बाहर आ गया। गली से गुजर रहे लोग भी रुक कर देखने लगे। देखते-देखते दस-बारह लोग इकठ्ठा हो गए।
“चोरी कर रहे थे?” भाई ने घुड़कते हुए उसकी कमीज का कालर पकड़ लिया।
“नहीं, हम चोर नहीं हैं हमारा विश्वास कीजिए, हमसे पहली बार ऐसा हुआ।’’ यह कहते भर में उसकी कनपटी से पसीना बहने लगा। उसकी पतलून पैरों के काँपने की गवाही दे रही थी।
मैंने देखा वह सामान्‍य सा युवक साधारण किन्तु साफ़-सुथरे कपड़े पहने था। पहनावे से किसी दूसरे अंचल का लग रहा था।
“अरे छोड़ो, जाने दो उसे।’’ दरवाजे तक आ गए पिता जी ने भाई को आदेश देने जैसे स्‍वर में कहा।
भाई ने युवक का कालर छोड़ दिया। युवक पिता जी को देखते हुए हाथ जोड़ कर चला गया। गली में जमा हुए लोग भी चले गए। मैं भी अंदर आ गई। बाहर का नज़ारा अभी भी मोहक था। रेडियो पर गीत भी बज रहा था। लेकिन मन में जैसे कुछ चुभ रहा था।

मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

तितलियाँ

नये साल के स्वागत में मॉल की रौनक चरम पर थी। ठीक उसके सामने रेहड़ी-खोमचे वाले खड़े थे। उनके बीच कुछ खिलौने-गुब्बारे बेचने वाले बच्चे भी थे जो मॉल के अंदर आने-जाने वालों से अपना सामान खरीदने की मिन्नतें करते घूम रहे थे।
निशा मॉल से निकल कर टैक्सी की प्रतीक्षा करने लगी तभी, “ओ दीदी जी! खिलौना ले लो!” एक बच्चे ने आग्रह किया।
“पर मेरे यहाँ तो कोई बच्चा ही नहीं है?”  निशा ने उसके गाल को सहलाते हुए कहा।
“ले लीजिये, घर में सजा दीजियेगा!”
“लेकिन बच्चेँ...” जब तक निशा कुछ और कहती, वह बच्चा एक दूसरे आदमी की ओर लपका, “ओ अंकल जी, खिलौना ले लीजिए!”
“हमें नहीं लेने तेरे ये खिलौने!”
“ले लीजिये...कम का लग जाएगा!” अब बच्चे की नजर आदमी के साथ वाले बच्चे पर थी।
“बोला ना, नहीं चाहिए!” आदमी ने झिड़कते हुआ कहा।
“पापा, मुझे वो वाला जोकर चाहिए!” आदमी की उँगली पकड़े हुए बच्चे ने डंडे से लटके मुखौटों की ओर इशारा किया।
”नहीं बेटा...ये खिलौने अच्छे नहीं हैं, चलो अभी अंदर से दिला देंगे!”
“नहीं साब जी जे खिलौने भी अच्छे हैं...एकदम नए!”
“छोरे, ये तू जो बेच रहा है ना ये सब कचरा माल है, जो हमारे दुश्मन देश से आया है!”
“जे कचरा नहीं है साब जी...सारा माल दाम देकर उठाया है!” बच्चे की आवाज भर्रा गयी।
“इधर लाओ, देखूँ क्या-क्या है तुम्हारे पास!”
“हाँ दीदी!...जे देखो चिड़िया! जे मुखौटे वाला जोकर और जे दीवार पर चिपकाने वाली तितलियाँ...” बच्चा हुलसकर निशा को खिलौने दिखाने लगा।
जाते-जाते वह आदमी निशा की प्रतिक्रिया से ठिठक गया था। उसे ति‍तलियॉं खरीदते देखकर वह बड़बड़ाया, “हुँह, इन्हीं लोगों ने देश का बेड़ा गर्क कर रखा है!” और अपने बच्चे को खींचता हुआ मॉल के अंदर घुस गया।