शुक्रवार, 2 जुलाई 2021

कलयुग की महिमा

रवि ने जैसे ही आलमारी बंद की तो अंदर से फुसफुसाहट सुनाई दी, “य..यह किसकी दस्तक है? कौन हो सकता है?” 


"कोई हमारी जगह लेने आ रहा है क्या!” अंदर से एक दूसरी आवाज़ आई।

“हुँह! किसकी मजाल है जो हमारी जगह ले?” पहली आवाज़ ठुनक कर बोली।

“शायद तुम भूल रही हो, तुमने भी तो आते ही मुझे एक तरफ सरका दिया था!” दूसरी ने ताना मारा।

“हाँआँ तो उस समय तुम अकेली थी!” पहली ने सफाई दी।

“क्या कहा, अकेली...यहाँ तुम दोनों से पहले मैं आई थी!”  कोने में दुबकी खाँसती खखारती तीसरी आवाज़ आई।

“हह, पुरनियों का आगे-आगे कूदना शोभा देता है क्या!” पहली आवाज़ ने टोका।

“अँहँह! यहाँ कितनी बास भरी है!” एक नई आवाज़ ने मुँह बिचकाते हुए कहा जिसने अभी-अभी प्रवेश किया था।

“हाँ, पुरानी सीलन भरी, मुझे तो उबकाई आ रही है!” साथ ही दूसरी नई आवाज भी बोल उठी।

“कहीं इन दोनो का इशारा हमारी तरफ तो नहीं!” पुरानी आवाजें खुसपुसाईं, “सही कहती हैं ये नवेलियाँ! हम बीए , एम्मए,  पीएचडी की डिग्रियों से अब बास ही तो आएगी!”

“त तुम लोग कौन हो?” तीनों ने सहमकर पूछा।

“हम महँगी, हाइटेक डिग्रियाँ हैं! हम इस रवि की बेरोजगारी मिटाने आई हैं!” दोनों नई आवाजें कड़कड़ाते हुए बोलीं।

“आओ बहना आओ,  तुम दोनों भी बिस्तर जमा लो, आखिर सपने देखने का टैक्स थोड़े ही लगता है!" तीनों कोने में दुबकते हुए बोलीं।

अचानक रवि की तंद्रा टूटी। लैपटॉप पर इमेल खुला पड़ा था। कंपनी से रिजेक्शन का। जहाँ उसने नौकरी के लिए आवेदन किया था।

वह थकी उँगलियों से किसी दूसरी कंपनी के लिए आवेदन पत्र टाइप करने लगा।
कमरे में सन्नाटा पसरा था। उसे लगा जैसे आलमारी में पड़ी उसकी डिग्रियाँ भी थक कर शांत हो गई हैं।

रविवार, 30 मई 2021

सुराज

राजा सूर्यप्रताप के शासन का डंका स्वर्ग तक गूँजने लगा तो देवताओं ने प्रभु से राजा सूर्यप्रताप के शासन पर अंकुश लगाने की प्रार्थना की। प्रभु ने आश्वासन दिया कि वे स्वयं इसकी जाँच करेंगे। वे अपने एक गण को लेकर राजा सूर्यप्रताप के राज्य की ओर चल दिए।

वहाँ  उन्होंने देखा कि कुछ लोग युद्ध के नगाड़े बजा रहे हैं।  कुछ लोग मदिरा और रास-रंग में लिप्त हैं और कुछ लोग अपने खेतों के किनारे बैठकर रस्सियाँ बट रहे हैं। 

अब प्रभु का धैर्य जाता रहा। उन्होंने तुरंत अपने गण को वास्तविकता का पता लगाने के लिए वापस भेजा।

गण के वापस आते ही प्रभु ने अविलंब प्रश्नों की झड़ी लगा दी।

“वे लोग कौन थे, जो बिना युद्ध के नगाड़े बजा रहे थे?”

“सैनिक थे प्रभु!”

“और वे, जो मदिरा और रास-रंग में लिप्त थे?

“वे चौकीदार थे प्रभु।”

“अर्थात्!”

“प्रभु, नगाड़ों की गूँज से प्रजा हरदम आतंकित और चौकन्नी रहती है इसलिए चौकीदारों का काम प्रजा स्वयं कर देती है। इससे उनके पास समय ही समय रहता है, जिसे वे रास-रंग में व्यतीत करते हैं।

“और जो इतनी सारी रस्सियाँ बट रहे थे वे कौन थे?

“वे किसान थे प्रभु!”

“अर्थात्!”

“मदिरा और रास-रंग की आपूर्ति के बदले चौकीदारों ने व्यापारियों को खेतों का मालिक बना दिया।”

“आगे कहो!”

“और प्रभु, वे किसान अपनी इहलीला समाप्त करने के लिए रस्सियाँ बट रहे थे।“

“अर्थात्, वास्तव में राजा सूर्यप्रताप दीर्घ शासन के योग्य हैं।“