रविवार, 17 फ़रवरी 2008

पुकार

रे मानव ! उठ जाग निद्रा से
देख कराह रही ये धरा तेरी
पुकार रही ये माँ तेरी
उठ जा अब तो ओ मेरे लाल-नंदन

घायल करते लूटते इसका यौवन
चुन रहे पत्थरों में इसके
सुंदर, विशाल और कोमल तन
उसके हरियाले वसन का करते
चीर-हरण
कुछ दुःशासन -दुर्योधन
जो करते नाश इस धरनी का चैन-अमन
बन जा तू कृष्ण चला अब चक्र सुदर्शन

यदि अब न जागा तू तो जायेंगे चले
ये तेरी खुशहाली के दिन
फ़िर ना ले सकेगा
क्षण भर सुवास और दम



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