मंगलवार, 18 अगस्त 2015

'गुनगुना एहसास’ : लघुकथा

एक तो रात का समय ऊपर से जनवरी की हाड़ कंपा देने वाली ठण्ड। साईकिल चलाते हुए हैंडिल पर मेरी उंगलियाँ जमकर काठ हुई जा रहीं थीं। रास्ते में चाय की गुमटी देखकर मैंने सोचा थोड़ी गर्माहट ले ली जाय, सो चाय का ऑर्डर दे वहाँ रखी बेंच पर बैठ गया।

एकाएक मेरी नजर सामने, सड़क के पार, एक मैले-कुचैले मरियल-से कुत्ते पर पड़ी। मैंने उसे ग़ौर से देखा। यह वही कुत्ता था जिसे हमारे मोहल्ले के एक संभ्रांत परिवार ने कुछ माह पहले मंगवाया था। आरम्भ में तो उसे बड़े लाड़-प्यार से रखा गया, लेकिन माह भर बीतते-बीतते डंडे से उसकी धुनाई होने लगी और फिर एक दिन उसे यह कह कर घर से बाहर कर दिया गया कि वह देशी नस्ल का है।

सामने ही, एक व्यक्ति ठेले के चारों ओर बोरे लटका कर अपना आशियाना बनाने की कोशिश कर रहा था । पास में ईंटों से बने चूल्हे पर रखी देगची में कुछ पकाने को रखा हुआ था। वह कुत्ता बदहवास-सा बार-बार उस देगची की ओर जाता और वह व्यक्ति हर बार डंडे को ज़मीन पर पटक कर उसे भगा देता था।

पक जाने के बाद वह व्यक्ति देगची से खिचड़ी निकालकर खाने लगा। कुछ ही दूरी पर डरा-सहमा कुत्ता अपना मुंह ज़मीन पर टिकाए, पूंछ हिलाता हुआ कूं-कूं करता याचक दृष्टि से उसे देखे जा रहा था। खाते-खाते उस व्यक्ति ने अख़बार के एक टुकड़े पर थोड़ी खिचड़ी रखकर उसकी ओर सरका दी । कुत्ता दबे पाँव पूँछ हिलाता हुआ उसके निकट सरक आया और अख़बार पर पड़ी खिचड़ी खाने लगा।

“साहब, चाय।” चाय वाले की आवाज आई।

उसके हाथ से चाय के गिलास को लेकर मैं अपनी दोनों हथेलियों के बीच जकड़कर बैठ गया। गले में उतारने से पहले जरूरी था कि चाय की गर्मी से उँगलियों को सीधा कर लिया जाए। तीन मिनट का गिलास इसलिए पाँच से भी ज्यादा मिनट में खाली हुआ। गिलास को गुमटी पर रख मैंने चाय के पैसे चुकाए और बेंच से खड़ा हो गया।

चलते-चलते मैंने अनायास ही आख़िरी बार अपनी निग़ाह सामने ठेले की ओर डाली। वह व्यक्ति ठेले की ओट में बिछे बोरे पर एक पुरानी चीकट-सी रज़ाई में गठरी बन चुका था। कुत्ता उसके पैरों के पास रज़ाई से बाहर रह गए बोरे पर सिमटा पड़ा था। तभी उस व्यक्ति ने पैर से रज़ाई का कोना कुत्ते की पीठ पर डाल दिया, कुत्ता गोलमोल होकर उसमें दुबक गया।

चित्र गूगल से साभार 

1 टिप्पणी: