सोमवार, 17 अप्रैल 2017

डर के साये में : लघुकथा

आये दिन महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार की घटनाओं से निकिता का मन उद्विग्न हो उठा था।
"एक लड़की का जीवन काँटों के बीच से गुज़रने जैसा है...ना जाने कब कौन सा काँटा उसकी अस्मिता को चीर कर तार-तार कर दे...उफ्फ्फ़! ये पुरुष!” दांत पीसते हुए निकिता ने मुट्ठियाँ भींच लीं।
विचारों के द्वन्द में वह ऑटो में आ बैठी। ऑटो चल पड़ा। अचानक उसका ध्यान गया कि वह दो पुरुषों के बीच फँसी बैठी है। वह असहज हो आगे खिसक गयी। उसे अपनी बगलों में उँगलियों का एहसास होने लगा। वह सिहर उठी। उसने दोनों तरफ बारी-बारी से देखा। उन दोनों पुरुषों की उँगलियाँ उनके मोबाइल पर थीं। यह देख निकिता को कुछ तसल्ली हुई।
उसका जिम आ गया। उसने उतर कर ऑटो वाले को देखा, फिर बड़ी सतर्कता से नोट का कोना इस तरह से पकड़ा कि कहीं ऑटो वाले का हाथ उसके हाथ से ना छू जाए। ऑटो वाला जब तक नोट पकड़ता निकिता ने नोट छोड़ दिया। नोट फड़फड़ाता हुआ सड़क पर आ गिरा।
“आउच!” निकिता के मुँह से निकला।
“आप जाइए, मैं उठा लूँगा।”
निकिता जल्दी-जल्दी लिफ्ट की ओर बढ़ी। लिफ्ट का दरवाजा बंद हो रहा था। उसने लपक कर उसका बटन दबा दिया। दरवाज़ा खुल गया। निकिता लिफ्ट में दाखिल हो गयी। उसमें एक दढ़ियल सा आदमी पहले से था। उसे देख निकिता की साँस चढ़ गयी। लिफ्ट चल चुकी थी।
वह वापस तो जा नहीं सकती थी। मन ही मन अपने को कोसने लगी, “मुझे सीढ़ियों से जाना चाहिए था, अब कहीं ये....हुफ्फ्फ़!” निकिता ने एक हाथ से अपने बैग को सीने से चिपका लिया। और दूसरे हाथ के नाख़ूनों को नोचने के अंदाज़ में कर सतर्क हो गई।
वह आदमी लिफ्ट में लगे किसी विज्ञापन को देखने में मशगूल था। निकिता का फ्लोर आ गया। वह तेजी से बाहर भागी। एक गहरी साँस भरते हुए उसने जिम में प्रवेश किया।
निकिता बिना व्यायाम के ही पसीने से सराबोर हो चुकी थी। वह साईकिलिंग करने लगी।
लगभग पाँच मिनट बीते होंगे। जिम के ट्रेनर ने सूचना दी, “आज एक प्रतियोगिता होने वाली है...जो लोग भाग लेना चाहते हैं छत पर चलें...मैम आप लोग भी चलिए।” ट्रेनर ने निकिता के साथ-साथ अन्य लड़कियों से भी आग्रह किया।
छत पर कुल पंद्रह प्रतियोगी थे। जिनमें चार लड़कियाँ थीं। प्रतियोगिता का एक चक्र पूरा होने के बाद अंतराल हुआ। तो कुछ लोग नीचे चले गए। उसी समय अचानक बिजली चली गयी। छत पर घुप्प अँधेरा छा गया।
तभी निकिता को ध्यान आया कि तीनों लड़कियाँ भी नीचे चली गयी थीं।
निकिता थर्रा उठी, “मूर्ख हूँ मैं भी! मुझे भी नीचे चले जाना चाहिए था...क्या ज़रूरत थी धाकड़ बनने की! आज तो...”
अभी वह यह सब सोच ही रही थी कि एक आवाज़ आयी, “जो जहाँ है, वहीं खड़ा रहे...मैं मोबाईल की लाइट जलाता हूँ।”
“हाँ छत पर बहुत सामान बिखरा है...।” यह दूसरी आवाज़ थी। और इसके साथ ही मोबाईल की मद्दिम रोशनी जल गयी... हालाँकि अँधेरा अब भी था लेकिन मन में आशंकाओं का अँधेरा मिट चुका था।
 (26/03/2017)
(दिशा प्रकाशन द्वारा 'नई सदी की धमक' साझा लघुकथा संकलन में प्रकाशित)
                                                                  (चित्र गूगल से साभार)

3 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "आज़ादी के परवानों को समर्पित १८ अप्रैल “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. क्या कमाल कथा है!! बहुत अच्छा लिखती हैं आप! और लघुकथाएं पढ़ना चाहूंगी आपकी.

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  3. नाम वही, काम वही लेकिन हमारा पता बदल गया है। आदरणीय ब्लॉगर आपका ब्लॉग हमारी ब्लॉग डायरेक्ट्री में सूचीबद्व है। यदि आपने अपने ब्लॉग पर iBlogger का सूची प्रदर्शक लगाया हुआ है कृपया उसे यहां दिए गये लिंक पर जाकर नया कोड लगा लें ताकि आप हमारे साथ जुड़ें रहे।
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