बाग़ के मालिक ने ढेला उठा कर वृक्ष की टहनियों पर दे मारा। चह-चह करते पंछी उड़ चले।
फुटपाथ पर बैठा नजफ़ भावशून्य आँखों से आसमान में उन्हें दूर तक जाते हुए देखता रहा।
“कहाँ गए होंगे? अपने-अपने बसेरों पर शायद?” नजफ़ की होठों की सूखी पपड़ाई पत्तियाँ थरथरा उठीं।
“न...जाएँगे कहाँ, बसेरे तो यहीं हैं उनके भी।“ साथ बैठा बिशनू मुँह पर अंगोछा फेरते हुए बोल पड़ा।
“पर लौटकर आएँगे क्या?...मालिक के ढेलों का भय...शायद न भी आएँ। और क्या पता कि उनके बसेरे यहाँ पर हों ही न।“ नजफ़ अभी भी आसमान को निहारे जा रहा था।
“पंछियों का क्या है, जहाँ चुगने को मिल जाए बसेरे वहीँ बना लेते हैं।“
“ठीक कहते हो बिशनू बिना दानों के बसेरों का भी क्या अर्थ।“ कहते हुए कहीं खो गया नजफ़।
“वो देखो इमारतों के बारजों से कितने हाथ निकल आए हैं इनको चुगाने के लिए।“ कहते हुए बिशनू पानी की मुड़ी-तुड़ी बोतल का ढक्कन खोलने लगा।
“चलो..कम से कम ये हाथ तो ढेले नहीं मारेंगे ना!” नजफ़ के पपड़ाए होठों के फैलने से खून रिस आया।
“क्या पता...अभी तो सेवा भाव दिख रहा है इनमें।“ बोतल से बचे पानी की बूँदें मुँह में झारते हुए बिशनू बोला।
”अभी तो का क्या मतलब?...तो क्या ये हाथ भी...?”
“नरेसा बता रहा था कि मालिक दोबारा बुलाए हैं सबको, कहते हैं कि घर जाओगे तो...!” आगे के शब्द गले में ही घुट गए बिशनू के। उसने दाँतों के बीच दोनों होठों को जोर से दबा लिया।
“तो...रुकोगे क्या, पता नहीं यह बेमारी कब तक...?”
नजफ़ की बात का जवाब दिए बिना बिशनू उठा और एक ढेला लेकर पूरी ताकत से उछाल दिया बारजों की ओर।
पंछी चह-चह कर उड़ चले...दूर...
फुटपाथ पर बैठा नजफ़ भावशून्य आँखों से आसमान में उन्हें दूर तक जाते हुए देखता रहा।
“कहाँ गए होंगे? अपने-अपने बसेरों पर शायद?” नजफ़ की होठों की सूखी पपड़ाई पत्तियाँ थरथरा उठीं।
“न...जाएँगे कहाँ, बसेरे तो यहीं हैं उनके भी।“ साथ बैठा बिशनू मुँह पर अंगोछा फेरते हुए बोल पड़ा।
“पर लौटकर आएँगे क्या?...मालिक के ढेलों का भय...शायद न भी आएँ। और क्या पता कि उनके बसेरे यहाँ पर हों ही न।“ नजफ़ अभी भी आसमान को निहारे जा रहा था।
“पंछियों का क्या है, जहाँ चुगने को मिल जाए बसेरे वहीँ बना लेते हैं।“
“ठीक कहते हो बिशनू बिना दानों के बसेरों का भी क्या अर्थ।“ कहते हुए कहीं खो गया नजफ़।
“वो देखो इमारतों के बारजों से कितने हाथ निकल आए हैं इनको चुगाने के लिए।“ कहते हुए बिशनू पानी की मुड़ी-तुड़ी बोतल का ढक्कन खोलने लगा।
“चलो..कम से कम ये हाथ तो ढेले नहीं मारेंगे ना!” नजफ़ के पपड़ाए होठों के फैलने से खून रिस आया।
“क्या पता...अभी तो सेवा भाव दिख रहा है इनमें।“ बोतल से बचे पानी की बूँदें मुँह में झारते हुए बिशनू बोला।
”अभी तो का क्या मतलब?...तो क्या ये हाथ भी...?”
“नरेसा बता रहा था कि मालिक दोबारा बुलाए हैं सबको, कहते हैं कि घर जाओगे तो...!” आगे के शब्द गले में ही घुट गए बिशनू के। उसने दाँतों के बीच दोनों होठों को जोर से दबा लिया।
“तो...रुकोगे क्या, पता नहीं यह बेमारी कब तक...?”
नजफ़ की बात का जवाब दिए बिना बिशनू उठा और एक ढेला लेकर पूरी ताकत से उछाल दिया बारजों की ओर।
पंछी चह-चह कर उड़ चले...दूर...
सच पंछियों का क्या ठिकाना, कभी यहां कभी वहा जहां चारा मिले बेचारे उडे चले जाते हैं
जवाब देंहटाएंमालिक अपना फायदा पहले देखता है उसे लाचार पर भी दया कहां आती है
कटु सत्य है आज का यही
शुक्रिया कविता जी।
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंपत्थर मारने से पंछी कहाँ टिकने वाले हैं।और पंछी भी घोंसला वही बनाते हैं जहां उन्हें आसानी से दाना पानी मिलता रहे।
समसामयिक सुंदर लघुकथा अर्चना जी।👌👌👌
बहुत ही सुंदर सृजन.
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंजय मां हाटेशवरी.......
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
21/06/2020 रविवार को......
पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में. .....
सादर आमंत्रित है......
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धन्यवाद