जगन, छगन, गगन। मध्यावकाश की घंटी बजी नहीं कि इनकी गेंद तड़ी चालू।
"जगन हमें दे! जगन हमें दे!"
चूँकि गेंद जगन की है तो वह जिसको चाहता पहली चाल उसी की होती। ऐसे में छगन नंबर मार जाता। यह कमाल उसकी जेब का है। जो कभी अंबियों, तो कभी जामुनों से फूली रहती है।
"ओ छगन, एक अंबी दे ना!"
भाव तय था। एक अंबी या तीन जामुनों पर एक चाल।
कुछ गेंद की आस में तो खड़े रहते लेकिन जामुन देखकर स्वाद हावी हो जाता। इस तरह से वे अपनी चाल भी छगन को दे देते।
"छगन हमें भी! छगन हमें भी!"
कभी-कभी तो लगता है कि गेंद का मालिक जगन नहीं छगन है।
और गगन, जिसे न अंबियों की चाहत है न जामुन की। वह तो बस अपनी चाल की प्रतीक्षा में गेंद को टुकुर-टुकुर देखता रहता है। कभी चाल मिलती भी है तो मध्यावकाश समाप्त की घंटी बज जाती है।
अधिकांशतः वह सूखी टहनियों से अकेले ही खेलता रहता है।
आज मौसम बदला-बदला दिख रहा है और आठवाँ आश्चर्य भी दिखा। आज मध्यावकाश में गेंद तड़ी नहीं खेली जा रही है! जगन गुमसुम-सा दिख रहा है। छगन की जेब भी पोपट-सी दिख रही है। अब हर मौसम में अंबियाँ और जामुन तो फलने से रहे।
बल्कि आज तो गगन रानी मधुमक्खी बना बच्चों से घिरा हुआ दिख रहा है।
"कैसे बनाई, हमें भी बनाना सिखा ना!" ऐसी कई आवाज़ें उसके इर्द-गिर्द से आ रही हैं।
गगन के हाथ में एक गेंद दिख रही है। आखिर बच्चे कहाँ बैठनेवाले। गेंद तड़ी फिर चालू।
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर मंगलवार 6 अक्टूबर 2020 को साझा की गयी है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लघुकथा, सुन्दर संदेश से पगी।
जवाब देंहटाएंउत्तम सृजन
जवाब देंहटाएंआत्मनिर्भर भारत!! :)
जवाब देंहटाएं😍 🙏
हटाएंवाह ये है समय का बदलना ।
जवाब देंहटाएंसुंदर लघुकथा