रविवार, 17 फ़रवरी 2008

प्रौढ़ बचपन


आते -जाते रास्ते पर मैंने देखा
नन्हा सा एक प्रौढ़ बचपन
नही था उसके जीवन में
माता-पिता का प्यार -दुलार
उठा रखा था उसने हाथों में
अपने ही जैसा इक बचपन
सिखा दिया था जीना उसको
साल चार के इस जीवन में
जूझ रहा था पर हिम्मत से
लिए जिम्मेदारियों का बोझ स्वयं
नही था उसे लगता कोई ग़म
देख के उसको आती मुझमें
दया नही जोश और ताकत वरन
दुआ करती हूँ उसको मिले
आने वाले इस जीवन
सुख-सफलता और प्रसिधी -पराक्रम

2 टिप्‍पणियां:

  1. संवेदना और शिल्प दोनों से पूर्ण है आपकी कविता बहुत दिनों बाद लिखा आज आपने गुजारिश है की नियमित लिखें ...ढेरों बधाईया...
    डॉ.अजीत

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