शुक्रवार, 5 जून 2009

पर्यावरण-


कराह रही है धरती अपनी
तड़प रहा है जन-जीवन

लुट गई हरियाली जिसकी
काट दिए वन-उपवन

छीन लिए जिसके सुन्दर आवरण
खतरे में पड़ गया उसका पर्यावरण

छाती थी घटाओं की परत तब
तार-तार हुए ओज़ोन परत अब

बनते थे जिसपे हरित गृह
बन गई वह स्वयं हरित का गृह

पिघल रहे हैं हिमनद कट-कट
हो जाएँगे जल-प्लावन सागर तट

थी कभी जहाँ सावन की हवाएं
बह रही वहां पसीने की धाराएं

चलती थी जहाँ पवन हौले-हौले
बरस रहे वहां आग के शोले


लूट लिया संसाधन जिसका
बचाना है अब अस्तित्व उसका

आओ मिलकर प्रण करें
जननी के लिए कुछ कर्म करें

घर-घर एक वृक्ष लगाएं
धरती के पर्यावरण को बचाएँ

फिर आएगा हरियाला सावन
नाच उठेगा मयूर मन वन

3 टिप्‍पणियां:

  1. sanjeedgi bhari kavita.aaj dharti kuch kehna cha rhi par hum logo ke kuch samjh mai nhi rha...jab lut jayega tab samjh mai ata hai hamare...kbhi hamre blol par bhi dastak de.

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  2. कविता ने हमे हमारा स्कूली दिन याद दिलाया. पर्यावरण के प्रति हम कितने जागरूक थे.
    जन चेतना एवं जागरूकता बढाने के लिए धन्यवाद!

    - यादों का इंद्रजाल

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