गुरुवार, 21 जनवरी 2010

आया महीना माघ और पूस


आया महीना माघ और पूस
आग भी तापे हरदम फूस
कोहरा ओढ़े सूरज निकले

उसको भी अब लगती सर्दी
पंद्रह दिन कि छुट्टी कर दी

सर्द हवाओं ने ली सब ऊर्जा चूस

आया महीना माघ और पूस

जब तापमान का पारा गिरता
ब्लोवर हीटर सब लग जाता
नहाने में मन करे आना-कानी
नल का देख के ठंडा पानी
लगे जवानी अब गई रूस

आया महीना माघ और पूस

निकली सलाई और ऊन के गोले
माँ स्वेटर बुनती हौले-हौले
पहने स्वेटर ओढ़े कम्बल रजाई
दांत कटकटाए फिर भी भाई

भरी चाय की प्याली को चूस

आया महीना माघ और पूस

(चित्र गूगल सर्च से साभार )

8 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर लगा - "आग भी तापे हरदम फूस’ ।

    प्रविष्टि का आभार ।

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  2. बेहद खूबसूरत व उम्दा भाव दिखा आपकी इस रचना में, बहुत-बहुत बधाई आपको इस लाजवाब रचना के लिए।

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  3. आदर्निय महोदया , शीत रितु को दर्शाति येह कविता पसन्द आयी.

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  4. 'साहित्य वही जो समय के साथ चले' आपने सार्थक कर दिया अपना रचनाकार होना. पूरे उत्तर भारत की शीत लहर का सचित्र वर्णन जैसा अक्स दिखा गया यह गीत.

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