शनिवार, 3 अगस्त 2013

मैं तो हूँ इक उड़ता बादल



मैं तो हूँ इक  उड़ता बादल

 चाह मिले तो  बरस जाउँगा

सूखे वन-उपवन  खेतों  को

  हरियाली दे कर  जाऊँगा


कहाँ रहे  वन  हरे-घनेरे

कहाँ रहीं  फलदायी  शाखें

गिरा गई  आंधी पश्चिम की 

 वृक्ष सभी तहज़ीब-अदब  के


 उग आये बेअदबी के सब 

  'ऊँचे' जंगल शुष्क कंकरीले  

 जिनके मन के वातायन को

 अब  मेरी फुहारें रास  नहीं


उनके  ‘मैं’ के सेहराओं की 

सूखीं  नम मस्त  हवाएँ भी

 यह इक सच  है मगर कड़वा

नागफनी के झाड़ों को कब

भायी  सावन की हरियाली

2 टिप्‍पणियां:

  1. बादल तो खुली हवा मिएँ ही सांस ले पाते हैं ... जिनके मन के दरवाजे भी खुले हों वो ही इसका एहसास कर पाते हैं ... शानदार रचना ...

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