मैं तो
हूँ इक उड़ता बादल
चाह
मिले तो बरस जाउँगा
सूखे वन-उपवन खेतों को
हरियाली दे कर जाऊँगा
कहाँ रहे
वन हरे-घनेरे
कहाँ
रहीं फलदायी शाखें
गिरा गई आंधी पश्चिम की
वृक्ष सभी तहज़ीब-अदब के
उग आये बेअदबी के सब
'ऊँचे' जंगल शुष्क कंकरीले
जिनके मन के वातायन को
अब मेरी फुहारें रास नहीं
उनके ‘मैं’ के सेहराओं की
सूखीं नम मस्त हवाएँ भी
यह इक सच है मगर कड़वा
नागफनी के झाड़ों को कब
भायी सावन की हरियाली
मैं तो
हूँ इक उड़ता बादल
चाह
मिले तो बरस जाउँगा
सूखे वन-उपवन खेतों को
हरियाली दे कर जाऊँगा
कहाँ रहे
वन हरे-घनेरे
कहाँ
रहीं फलदायी शाखें
गिरा गई आंधी पश्चिम की
वृक्ष सभी तहज़ीब-अदब के
उग आये बेअदबी के सब
'ऊँचे' जंगल शुष्क कंकरीले
जिनके मन के वातायन को
अब मेरी फुहारें रास नहीं
उनके ‘मैं’ के सेहराओं की
सूखीं नम मस्त हवाएँ भी
यह इक सच है मगर कड़वा
नागफनी के झाड़ों को कब
भायी सावन की हरियाली
बादल तो खुली हवा मिएँ ही सांस ले पाते हैं ... जिनके मन के दरवाजे भी खुले हों वो ही इसका एहसास कर पाते हैं ... शानदार रचना ...
जवाब देंहटाएंशानदार रचना ...
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