शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

विस्‍फोट : लघुकथा

आज काव्या मिलने आने वाली थी। मैं घर के बाहर बरामदे में विचारों के उधेड़-बुन में फंसी चहलकदमी करते हुए न जाने कब अतीत में चली गई।

कई दिनों से मैं देख रही थी कि समीर हम सब से कटा-कटा सा रहता है। बार-बार पूछने पर उसने एक दिन शरमाते हुए काव्या से अपने लगाव के बारे में बताया था। वह उससे विवाह करना चाहता था। यह खबर हमारे लिए आश्‍चर्य मिश्रित खुशी लेकर आई थी। क्योंकि अब तक तो विवाह के नाम से दूर भागता रहा था वह । रिश्‍ते आते थे, पर वो बिना बात किए ही मना कर देता था। लेकिन यकायक उसके इस विस्फोट ने जैसे सूखे चूने पर पानी डाल दिया था। हमें कोई आपत्ति नहीं थी। बस काव्या के बारे में जानकर हम सब असमंजस में आ गए थे। कहाँ हमारा ग्रामीण परिवेश का मध्यम वर्गीय परिवार और कहाँ वह दिल्ली जैसी महानगरीय संस्कृति के वातावरण में पली-बढ़ी, उच्च व्यावसायिक वर्गीय घराने की कन्या।

“क्या ऐसे परिवार की लड़की हमारे परिवार के साथ सामंजस्य बिठा पाएगी?“ मैंने समीर से चिंता जताते हुए पूछा था।

“दीदी हम बंगलौर जा रहे हैं।“ समीर ने दूसरा विस्‍फोट किया था।

“बंगलौर क्‍यों ?“ मैं अवाक थी।

“हम दोनों ने जॉब के लिए अप्लाई किया था, वहां से बुलावा आ गया है।“ यह सूचना खुशी वाली थी, पर थोड़ी उदास करने वाली भी।

“ओह, तो बात यहाँ तक पहुँच गई है?” मैंने ताना देते हुए पूछा तो वह बिना कुछ जवाब दिए बाहर चला गया था।

उस दिन हम सभी भाई-बहन गाँव जा रहे थे। समीर कार चला रहा था। बीच-बीच में काव्या का फ़ोन आ रहा था। हमने समीर से कहा कि वह काव्या से गाँव पहुँच कर बात करले, अभी कार चलाने पर ध्‍यान दे। किन्तु उसने बात अनसुनी कर दी। अब तो ऐसा लगने लगा था जैसे काव्या हम भाई-बहनों के बीच दूरी बढ़ाती जा रही थी। फिर भी समीर की ख़ुशी हमारे लिए अधिक महत्वपूर्ण थी।

हमने काव्या को घर बुलाने की योजना बनाई। औपचारिकता वश ही सही लेकिन इसके पीछे एक कारण यह भी था कि वह भी हमारे घर-परिवार, रहन-सहन को देख-भाल ले। हमारी माँ थीं नहीं और अभी पिता जी को इस बारे में बताना उचित नहीं लग रहा था, इसलिए जो करना था हम बहनों को ही करना था।

कार के हार्न ने मुझे वर्तमान में लौटा लिया। मैंने गेट से झाँक कर देखा तो समीर और काव्या कार से उतर रहे थे। काव्या ने साड़ी पहन रखी थी। बाल लम्बे और खुले हुए थे। चेहरे पर हल्का मेकअप था। मैंने बढ़कर गेट खोल दिया। सामने आकर वह थोड़ा झिझकी फिर मुस्कुराते हुए वह मेरे गले लग गई। उसने अपनी बाँहों में मुझे भींच लिया, फिर अलग होते हुए कहा, ‘आप लोगों से मिलने का बड़ा मन था।’

मैं उसे बैठक में ले गई। बाकी बहनों से भी वह उसी गर्मजोशी से गले मिली। काफ़ी देर तक हम बातें करते रहे। उस दौरान मैंने ये महसूस किया कि हमने काव्या को लेकर जो छवि बनाई थी वह सही नहीं थी। काव्‍या अपनी बातों और व्यवहार से बड़ी सहज लगी।

हम भोजन करने बैठे तो काव्या का लाया हुआ भोजन भी साथ में परोसा। उसकी बनाई सब्‍जी के साथ पहला कौर खाते ही सबके मुँह से एक साथ निकला, “अरे इसमें तो एकदम माँ के हाथों बनी सब्‍जी का स्‍वाद है।”

“ये तुमने बनाई है काव्या !” मैंने आश्चर्य से पूछा, तो उसने शरमाते हुए हौले से हामी भरी।

“हम्म, तो समीर बंगलौर में तुम्‍हारे मजे रहेंगे।” खाते हुए मैंने चुटकी ली।

“ऐसी हमारी कि़स्‍मत कहाँ! ” समीर आह भरते हुए बोला।

“क्‍यों, क्‍या हुआ? ” हम सब बहनें एक साथ बोलीं। हमारी आवाज में घबराहट भी थी।

“नहीं दीदी, घबराइए मत। असल में हमें आप लोगों का साथ और स्‍नेह भी चाहिए। इसलिए.... बंगलौर जाना कैन्सिल।” कहा तो यह काव्‍या ने था, पर समीर हम सबको तिरछी नजरों से देखते हुए मुस्‍करा रहा था।

यह तीसरा विस्‍फोट था, पर इस बार ख़ालिस ख़ुशी का। फिर तो हर बीतते दिन के साथ काव्या हम सबके दिलों में उतरती चली गई। और हाँ इसमें अब पिता जी भी शामिल थे।




(चित्र गूगल से साभार )

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