गुरुवार, 29 अक्टूबर 2015

दीये : लघुकथा

करीम फुटपाथ के किनारे अपने दीये सजाए, ग्राहकों की आस में हर आने-जाने वालों को टुकर-टुकर देखे जा रहा था। कोई ग्राहक उसकी ओर आता दिखता तो उसकी आँखों में थोड़ी चमक आ जाती थी लेकिन अगले ही पल वह गायब भी हो जाती। ग्राहक चीनी बल्बों, झालरों से सजी गुमटियों की ओर बढ़ जाते थे। एक गुमटी उसके साथी रघु के बेटे सूरज की भी थी। रघु भी उसके साथ मिट्टी के दीये बनाता था।

‘यदि ये दीये, सचमुच न बिके तो?’ मन ही मन सोचते हुए करीम को सूरज की कही बात याद आ गई। वह अतीत में खो गया।
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“चचा, अब ई बिजिनस पुरान होइ गवा, तबही हम दुई साल पहिलहीं चैनीज झालर के बिजिनस कर लिए रहेन।’’

“मती मारी गई है तुमरी ? ’’ करीम चाक ठीक करते हुए बोला।

“चचा, तुम तो फिर भी झण्डी, ताजिया, कंदील बनावो, उ बिजिनस में कम से कम पइसा तो है, ई माटी के काम में सरीर माटी होई जाएगी लेकिन पइसा...।’’ सूरज ने ठेंगा दिखाते हुए कहा।

“बचवा, अब हम तो ई पुरखन के काम न छोड़ब। पइसा न सही हमरे दीयन से देवारी मा लोगन के घर रोसनी तो होत है।’’ यह कहते हुए करीम पोखर से मिट्टी लाने के लिए चल पड़ा।

पोखर से लोडर ट्रकों में मिट्टी भर रहे थे। ठेकेदार उनको निर्देश दे रहा था। करीम कुछ देर तक देखता रहा, फिर हिम्मत करके ठेकेदार के पास जा पहुँचा।

“बाऊ !” करीम थोड़ा झिझकते हुए बोला ।

“क्या है !” ठेकेदार ने बिना उसकी ओर देखे लापरवाही से पूछा।

“बाऊ, हमका थोड़ी माटी चाहत रहा।” करीम ने याचना की।

“मिट्टी नहीं है यहाँ ।” ठेकेदार पान मसाला मुँह में डालते हुए बोला।

“बाऊ, दिवारी आवे वाली है, थोड़ी माटी मिल जात तो...” उसकी बात पूरी होने से पहले ही ठेकेदार बिफर पड़ा।

“तुमको पता है कि मिट्टी कितनी महँगी हो गई है? मिट्टी चाहिए, हुंह ।”

“बाऊ, हमसे इ पोखर के मालिक गमला के बदले में माटी देत रहेन।”

“इस पोखर के मालिक? ये पोखर तो सरकारी है।” ठेकेदार जोर से हँसा।

करीम को कुछ समझ नहीं आया, वह थोड़ा सिटपिटाया, फिर बोला, “आपहू लय लेना गमला और दीया, उ सामने हमार झोपड़ा है।”

“हमें नहीं चाहिए दीया-फिया, भागो यहाँ से।” ठेकेदार ने झिड़की दी।

“बाऊ, एक ठेलिया माटी कत्ते की पड़ेगी?” थोड़ी देर बाद करीम ने एक बार फिर हिम्मत जुटाते हुए पूछा।

ठेकेदार ने दाँतों के बीच से पीक निकाली और मसाला चबाते हुए उसको ऊपर से नीचे तक देखा, फिर रहस्यमयी ढंग से मुस्कुराते हुए बोला, “हज़ार की।”

करीम के होश उड़ गए। उसकी गाँठ में कुल पाँच सौ रुपये थे। लकड़ीवाले का कर्जा पहले ही चढ़ा था और अभी इन दीयों को पकाने के लिए भी लकड़ियाँ चाहिए थीं। क्या करे, क्या न करे थोड़ी देर इसी उहापोह में पड़ा रहा, गाँठ से रुपये निकालते हुए वह ठेकेदार के आगे गिड़गिड़ाया, “बाऊ, कुल जमा पूँजी पाँच सौ है हमरे पास, एतने की माटी दय दो हमका।”

ठेकेदार ने किच्च से पीक थूकी, करीम से रूपये लेकर मिट्टी की ओर इशारा किया। “चलो जल्दी से लादो, और सुनो, दर्जन भर गमले तैयार करके रखना।” ठेकेदार ने चेताया।

“ठीक बा बाऊ ।” करीम का चेहरा खिल उठा, उसको ऐसा लगा जैसे दौलत मिल गई हो। वह जल्दी-जल्दी ढेर से मिट्टी उठाकर ठेलिया में डालने लगा।
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“मम्मा, दीये नहीं लोगी?” इस आवाज़ से करीम की तन्द्रा टूटी। उसने देखा एक छोटी सी बच्ची हाथों में दिए पकड़े बैठी है।

“बेटा, हमने चाइनीज़ झालर ले ली है।”

“लेकिन मम्मा, दीवाली में तो दीये जलाते हैं न ?” उसने हाथ में पकड़े दीयों को हसरत से देखते हुए पूछा।

“हाँ बेटा, लेकिन दीयों के तेल से दीवारें खराब हो जाती हैं, चलो छोड़ो इन्हें।” माँ ने बच्ची के हाथ से दीए छीनकर रख दिये और उसको चलने के लिए खींचा।

“नहीं मम्मा, मुझे तो दीये ही चाहिए।” बच्ची रूआँसी हो उठी थी और जमकर वहीं बैठ गई।

“चलो बाबा, दे दो बीस दीये।“ माँ हारकर बोली। करीम ने बीस दीयों के साथ एक बड़ा लाल दीया अलग से देते हुए कहा, “ई हमरी तरफ़ से बिटिया को देवारी का उपहार... ।” बच्ची दीया लेकर चहकने लगी।

“पापा, मुझे भी दीये चाहिए, मेरी मैम ने कहा था कि दीवाली में दीये जलाए जाते हैं।” तभी पास खड़े एक और बच्चे की आवाज़ आई।

फिर तो धीरे-धीरे करीम के दीयों के लिए लोगों की आमद होती गई। दीये अब करीम की आँखों में भी जल उठे थे।

(चित्र गूगल से साभार )

2 टिप्‍पणियां:


  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (30.10.2015) को "आलस्य और सफलता "(चर्चा अंक-2145) पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ, सादर...!

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  2. दीये अब करीम की आँखों में भी जल उठे थे.. सच गरीब का ईमान उसकी सबसे बड़ी दौलत है, जो लालची ठेकेदार जैसे लोग कभी नहीं समझ पाते हैं ...
    मर्मस्पर्शी प्रस्तुति हेतु धन्यवाद!

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