गुरुवार, 30 नवंबर 2017

हमसफ़र : लघुकथा

सुबह पाँच बजे
“श्याम, बेटा उठ ना, गुनगुना पानी और त्रिफला चूर्ण दे-दे मुझे!”
“ऊँम्म...अभी देता हूँ पिता जी!” 
“अरे बेटा, मेरी चाय में थोड़ी चीनी और डाल दे, फीकी लगती है!”
“पिता जी, चाय में पहले ही इतनी चीनी है!”
“अच्छा-अच्छा, नाराज़ क्यों होता है...अ...सुन वो अखबार बाहर आ गया हो तो लेता आ...साथ में चश्मा भी देता जा!”
“जी!” 

9 बजे
“बेटा, ऑफिस जा रहा है क्या! अच्छा सुन बाथरूम में गीजर चालू करता जा। भोला के आते ही मैं नहाने चला जाऊँगा वरना घूमने जाने में देर हो जाती है। और हाँ वो होम्योपैथ दवा जो घुटनों के लिए थी, वह भी शाम को आते वक्त लेते आना।”
“जी...लेता आऊँगा...अब मैं चलूँ?”
“हाँ-हाँ...जा। ब्रश में टूथपेस्ट लगा दिया है ना...!”
“अरे हाँ, पिता जी सब रख दिया है, पूजा के लिए आपकी आसनी, रामायण, लोटे में जल, गीजर चालू कर दिया है, तौलिया और कपड़े, ब्रश में टूथपेस्ट, मेज पर नाश्ता। बस आप भोला से माँगकर समय पर खा जरुर लेना। अब मैं निकलता हूँ!”
“अरे बेटा, एक काम और करता जा। एक नया जनेऊ भी खोल कर रखते जाना। जब से प्रोस्टेट की समस्या हुई है, कान पर चढ़ाने का समय ही नहीं रहता..!”
“ओह्हो पिता जी! अब जनेऊ ढूंढने में बस निकल जाएगी। आप भोला से कह दीजिएगा वह निकाल देगा।”

ऑफिस में
“श्यामलाल जी, आज ये फाइलें निपटानी हैं।”
“जी!”
“आज थोड़ा देर से घर चले जाइएगा। वैसे भी आपको तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। घर में पत्नी और बाल-बच्चे होते तो बात और थी। भाई, बेटा हो तो आप जैसा। अच्छा किया जो दूसरी शादी नहीं की। सब झंझटों से मुक्त। एक हम हैं...पहले ऑफिस की ड्यूटी बजाओ और फिर घर में पत्नी और बच्चों की।”
“जी...लेकिन पिता जी!”
“अरे हाँ...अब कैसी तबियत है उनकी? कोई काम वाला रख लो भाई उनके लिए। आपको भी आराम रहेगा।”
“जी रखा है...लेकिन वह केवल दिन में ही रहता है। और पिता जी किसी बाहर वाले के हाथ का खाना नहीं खाते। इसलिए..!”
“अरे श्यामलाल जी, फिर भी एक बूढ़े आदमी का काम ही कितना होता है।”
“जी अब वह तो मैं ही जानता हूँ।”

शाम सात बजे
“अरे बेटा दवा लाए क्या!”
“जी!”
“अच्छा! आधा कप पानी में पाँच बूँद अभी दे-दे!”
“...हुफ्फ्फ़...लाता हूँ...आsssह...!”
“क्या हुआ!”
“कुछ नहीं पिता जी। घुटनों में थोड़ा दर्द है!”
“ओssह!..तेरा भी तो उनचासवाँ लग गया है, और मैं हूँ कि अभी भी तुझे उन्नीस का समझ रहा हूँ। तू बैठ यहाँ। इसमें से पाँच बूँद तुझे भी देता हूँ!”
“इसकी क्या जरूरत है पिता जी!...मैं खुद ले लूँगा!”
“जरूरत है बेटा...और हाँ कल भोला से बोल देना कि दोनों समय का खाना वही बना दिया करे!”

(पत्रिका 'आधुनिक साहित्य'  अप्रैल-जून 2018 में प्रकाशित )

सोमवार, 6 नवंबर 2017

खूबसूरत : लघुकथा

रात की पाली आरम्भ हो चुकी है। स्टाफ़ के नाम पर दो वार्ड बॉय दिख रहे हैं। रात की नीरवता को चीरते यंत्रों की पीप-पीप और इक्का-दुक्का मरीजों की कराहों ने वातावरण बोझिल बना दिया है। नींद कोसों दूर है। तभी सामने वाले मरीज को इंजेक्शन लगाने के लिए एक नर्स मरुस्थल में हरियाली सी प्रकट हुई।
“चलो कुछ तो देखने लायक मिला।” मन ने सांत्वना दी। लेकिन जैसे ही उस शुभ्र वस्त्र धारिणी का सपाट पत्थर सा साँवला चेहरा दिखा तो अचानक उगी हरियाली कैक्टस में तब्दील हो गई।
“उम्ह...इससे तो भली वह सुबह वाली मोटी थी!” मेरे टूटे मन ने मुँह बिचकाया।
मेरे पेट के टाँकों का दर्द तो कम था किन्तु पेट फूलने लगा। मैंने भतीजे से दवा के लिए कहलवाया। दो से तीन बार हो गया किन्तु नर्स, “अभी आते हैं..” कहकर अभी तक नहीं आई। सलाह भेजी कि उठकर बैठें, थोड़ा चलें-फिरें।
बाजू वाले बिस्तर पर एक लड़की अनमनी सी होने लगी। उसकी माँ ने जाकर नर्स से कुछ कहा और वापस आ गई।
“क्या हुआ...नर्स आ नहीं रही क्या?” मैंने उसकी माँ से पूछा।
“आएँगी अभी बोला है...किसी को इंजेक्शन लगा रही हैं।” उसने जवाब दिया।
“हुँह, न जाने ये नर्सें अपने आपको क्वीन विक्टोरिया क्यों समझती हैं!” मैं बिफरा।
“नहीं चाचू...वह लाइन से दूसरे मरीजों को देखती हुई इधर ही आ रही हैं।” भतीजे के इस कथन पर मैंने उसे घूरा जो पास में रखी बेंच पर पसर चुका था।
मैं मन ही मन नर्स के चेहरे में फिर से उलझ गया।
“इस सरकारी अस्पताल में कुछ नहीं तो कम से कम नर्सें तो खूबसूरत होनी ही चाहिए...बेचारे उन मरीजों का क्या होता होगा जो लम्बे समय तक यहाँ पड़े रहते हैं!”
पेट में उथल-पुथल बढ़ गई। मैंने भतीजे को आवाज दी जो खर्राटों की गिरफ़्त में था।
“आँ...हाँ चाचू...!” दो-तीन बार पुकारने पर वह कसमसाते हुए उठा। मैंने उससे शौचालय ले चलने को कहा।
लघुशंका से निवृत हो वार्ड में ही एक दो चक्कर लगाने के बाद मैं बिस्तर पर आ गया। अब पेट हल्का लग रहा था और मैं मंद-मंद नींद के आगोश में विचरने लगा।
सुबह आँखें खुलीं तो नर्स बाजू वाली लड़की के बेड की ओर आ रही थी।
“गुड मॉर्निंग सिस्टर!” उसके आते ही उस लड़की ने अभिवादन किया।
“...ऊँ...हाँ...!” इस अप्रत्याशित अभिवादन से वह पहले तो चौंकी फिर उसने भी जवाब दिया, “...गुड मॉर्निंग!”
ऐसा करते हुए उसके होठों की सीपी खुल गईं जिससे भीतर से मोती झाँकने लगे। अब उसका चेहरा ख़ूबसूरत लगने लगा था।
“कैसी तबियत है सर....!” अब वह मुझसे मुखातिब थी।
अचानक मेरे मुँह से निकल पड़ा, “खूबसूरत...!”
उसने तिरछी निगाहों से मुझे देखा, मैं अपनी झेंप मिटाने के लिए कुछ और कहता इसके पहले ही वह फिर मुस्कुरा दी।
                                               
                                           Photo by Joopa Doops from Google Images

रविवार, 1 अक्टूबर 2017

पलमानेन्‍ट : लघुकथा

"सबेरे से कुछ बिका कि नहीं रे?" बिसुना खी खी करता हुआ शामली को छेड़ने लगा।

"ये लो...तो का नाहीं? दुकान रखते ही ग्वालिन, गनेशा और ऊ बड़का सिपहिया फौरन बिका गया !"

"अच्छा! ई बात!...तो ऊ चटख रंग वाली मातारानी के कोई काहे नहीं ले गया?...हेहेहे...!"

"लोग ले जायेंगे उनको भी...का पता अभी जरूरत ना हो?" आखिरी शब्द धीमें से बोलते हुए शामली पास रखी माता रानी की मूर्ति को सामने खिसका कर झाड़ने-पोछने लगी। 

"हीहीही, जरूरत? ऊ गवालिन तिख्खी नाक-नकस वाली रही तबै बिक गई...और ई माता रानी की नाक तुमरे पर गई हैं...हीही...तनी मोटी-मोटी, पसरी-पसरी है।" बिसुना ने फिर छेड़ा। 

"चल भाग हियाँ से...माता रानी के लिए अइसा बोल रहे हो? तुम्हारी आँख फूटे...." शामली ने घुड़की देते हुए घूरा। 

"लेव तो का झूठ बोले हम...पसरी नहीं है का? हमारी माता रानी देखी थी तू!...कितनी सुहा रही थीं!...तिख्खी नाक...फौरन सेठ लई लिए!" 

"सेठ लई लिए...हुँह! मटीरल कितना घटिया रहा! कोई छू दिया तो धड़ाम...और रंग तो हाथ लगते ही उतर जाएगा...!"अबकी शामली ने पैतरा बदला। 

"हाँ आँ...तो कौन सा पलमानेन्ट रखना है? और तुम्हारी मातारानी?...अच्छा मटीरल से का हुआ ...मोटी-पसरी नाक ना, जिसे कोई पूछा तक नहीं...हिहीही!" बिसुना फिर खींखीं किया। 

अबकी शामली ने धेला उठा कर बिसुना के पैरों पर दे मारा। बिसुना कूद कर हट गया और अंगूठा दिखाते हुए अपनी दुकान की ओर भाग गया। 

शामली की आँखों में आँसू आ गए। वह हताश हो कर बैठ गई। देवी की मूर्ति को एकटक निहारा और दोबारा कपड़े से झाड़ते हुए बड़बड़ाने लगी,
 "बाह रे आदमी जात...नाक-नकसा बिगड़ने से न हमें कोई पूछता है और न मातारानी को...कहा था दद्दा से कि मिट्टी में पानी संभाल कर डारो...अब उनको भी का कहें, आँख से दीखे तब ना...लेकिन चिंता न करो मैय्या, हम करते हैं कुछ...पलमानेन्ट!"

शामली ने मूर्ति को बोरी में डाल लिया। आस-पास खेल रहे बच्चों की सहायता से मूर्ति को सिर पर रखा और रोबीली चाल चलते हुए मुड़ गई बस्ती की ओर। 

आज दशमी है। नगर के सभी पण्डाल निर्जन पड़े हैं। प्रतिमाएँ विसर्जित हो चुकी हैं। वहीं बस्ती के अर्धनिर्मित मन्दिर में रौनक है। आज उसको अपनी देवी मिल गई हैं।

सोमवार, 24 जुलाई 2017

उत्तर : लघुकथा

“पापा, आज तो हम ज़ू चलेंगे ना?”
“-------------“
“बोलो ना पापा!” 
“आँ...हुम्म...चलेंगे...”
“लेकिन कब पापा?”
आज इतवार था। आकाश आलमारी के कागजों को बिस्तर पर फैलाए उनकी कतरब्योंत में लगा था। रोहन थोड़ी देर खड़ा उत्तर की प्रतीक्षा करता रहा फिर हमेशा की तरह बालकनी में जाकर सड़क पर आते-जाते लोगों को देखने लगा।
कागजों को उलट-पलट करने में कुछ पुराने कागज़ आकाश के हाथ लगे। वह उन्हें देखने लगा। ये कागज़ अस्पताल के थे। जब निशा की डिलिवरी हुई थी। आकाश की स्मृतियाँ उसे चार साल पहले ले गयीं।
निशा की प्रीमेच्योर डिलिवरी थी। बड़ी मुश्किल से रोहन की जान बची थी। इस बात को लेकर वह सालों रोहन की एक आवाज़ पर सोते से जाग जाता था। फिर उसको सीने से लगाए कमरे में तब तक टहलता रहता जब तक कि वह दोबारा न सो जाय।
लेकिन आजकल?...अचानक आकाश स्मृतियों के बादल से बाहर आ गया। उसके अंतर की नमी उसकी आँखों से झलक रही है।
“निशा रोहन कहाँ है?’
“बालकनी में होगा...और कहाँ जाएगा?”
“रोहन!....रोहन!” आकाश आवाज़ देता हुआ बालकनी पर पहुँचा।
रोहन ग्रिल की जाली पर पैर की उँगलियों के बल चढ़ा सड़क पर चल रहे मदारी के खेल को बड़ी तल्लीनता से देख रहा था। जाली सँकरी होने से बार-बार उसका पैर फिसला जा रहा था। आकाश ने बढ़कर उसे गोद में उठा लिया।
सड़क से मदारी की आवाज़ गूँजी तो आकाश भी उधर देखने लगा। बीच में कनखियों से रोहन की ओर देखा। उसने पाया कि रोहन मदारी के खेल को देखने के बजाय थोड़ी दूर खड़े व्यक्ति को देख रहा है। जो अपने कंधे पर एक बच्चे को बैठाए है। बच्चा ताली बजा-बजा कर किलकारी मार रहा है।
आकाश ने रोहन को उचकाकर कंधे पर बैठा लिया और, “ज़ूsssssम!” की आवाज़ निकालता हुआ बालकनी से सीढ़ियाँ उतरने लगा।
“पापा, हम मदारी का खेल देखने जा रहे हैं क्या?”
“हाँ बेटा...”
“येssssss!”
बालकनी में हतप्रभ सी खड़ी निशा, आकाश के अचानक परिवर्तित रूप को समझने की कोशिश कर रही थी।

बुधवार, 26 अप्रैल 2017

शोर : लघुकथा

शोर से नमिता की नींद टूट गयी। नमिता ने मोबाइल उठा कर देखा। डेढ़ बज रहा था।
सामने वाली बिल्डिंग में सुदूर देश-प्रदेश से आए कुछ लड़के रहते हैं। कुछ पढ़ने वाले हैं और कुछ नौकरीपेशा। जोर की ऊँची आवाज़ से यह जाहिर था कि यह शोर उन्हीं का है।

“ओफ्फ्फ़ ओssह!...लोग सही कहते हैं कि ये निरे जंगली हैं...अपनी मौज-मस्ती में यह भी भूल जाते हैं कि इतनी रात गए दिनभर के थके-हारे कुछ लोग सो भी रहे होंगे...” भुनभुनाते हुए नमिता ने करवट बदली।

“क्या हुआ निम्मो...नींद नहीं आ रही क्या?” आकाश ने उनींदी आवाज़ में पूछा।

“इस शोर में भला कोई कैसे सो सकता है?”

“ऐसा करो...कान में रुई लगाओ और सो जाओ।” नमिता ने अपना तकिया उठाकर बगल में सोए आकाश पर दे मारा। फिर उसी तकिए को कान पर रखकर सोने की कोशिश करने लगी।

शोर और तेज हो गया था। वह उठकर बालकनी में आ गई। उसने लाइट जलाई और नीचे देखने लगी।

वहाँ एक टैक्सी खड़ी थी जिसमें लड़के बैठ रहे थे। दो लड़के मोटरसाइकिल पर थे। वे ही जोर-जोर से कुछ बोल रहे थे। पर वह नमिता को बिलकुल समझ नहीं आ रहा था, क्योंकि उनकी भाषा ही अलग थी। बालकनी की लाइट जलने पर उन्होंने एक उड़ती नजर नमिता की ओर डाली। और फिर अगले मिनट भर में टैक्सी तेजी से चल पड़ी। पीछे-पीछे मोटरसाइकिल भी। 

गली में फिर रात की नीरवता पसर गई।
नमिता ने खुली हवा में चैन की साँस ली और आकर बिस्तर पर लेट गई। 

करवट बदलते हुए उसे याद आया कि आकाश ने कहा था कि किसी ‘अच्छी-सी कॉलनी’ में मकान ले लेते हैं, पर उसने ही तो कहा था कि वहाँ हम इनसानों की आवाज़ सुनने को तरस जायेंगे। पर यह भी कहाँ पता था कि यहाँ इन जंगलियों से पाला पड़ेगा।

सुबह उसकी नींद फिर हल्के शोर से ही खुली। उसने पर्दे की ओट से झाँका। दो लड़के आकाश से मुख़ातिब थे। वे टूटी-फूटी हिंदी में बोल रहे थे, “थोड़ा पैसा और चाहिए...आपका हेल्प मिल जाता तो हम...।”

“हाँ-हाँ...मैं अभी आया...” कहते हुए आकाश कमरे में आया।

“क्या हुआ...ये लड़के यहाँ...?”

आकाश ने टी-शर्ट डाली और गाड़ी की चाभी लेकर कमरे से बाहर निकल गया। पीछे-पीछे नमिता भी कमरे से बाहर आ गई।
“आकाश...ये तुम सुबह-सुबह कहाँ जा रहे हो?”

“निम्मो...सामने वाले खन्ना जी को रात हार्ट अटैक आया था...ये लड़के उनको हॉस्पिटल ले गए थे, जहाँ उनकी बाईपास सर्जरी हो रही है...इनके सारे पैसे खत्म हो गए हैं...बाक़ी आकर बताता हूँ!” 
आकाश एक साँस में बोलते हुए खटा-खट सीढ़ियाँ उतरने लगा। दोनों लड़के भी उसके आगे सीढि़याँ उतर रहे थे।

तभी उनमें से एक सीढ़ियाँ उतरते हुए ठिठका और पलटकर नमिता को देखते हुए बोला, “सॉरी...वो रात में शोर का आपको डिस्टर्ब हुआ!”

16/04/2017
(चित्र गूगल से साभार)

सोमवार, 17 अप्रैल 2017

डर के साये में : लघुकथा

आये दिन महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार की घटनाओं से निकिता का मन उद्विग्न हो उठा था।
"एक लड़की का जीवन काँटों के बीच से गुज़रने जैसा है...ना जाने कब कौन सा काँटा उसकी अस्मिता को चीर कर तार-तार कर दे...उफ्फ्फ़! ये पुरुष!” दांत पीसते हुए निकिता ने मुट्ठियाँ भींच लीं।
विचारों के द्वन्द में वह ऑटो में आ बैठी। ऑटो चल पड़ा। अचानक उसका ध्यान गया कि वह दो पुरुषों के बीच फँसी बैठी है। वह असहज हो आगे खिसक गयी। उसे अपनी बगलों में उँगलियों का एहसास होने लगा। वह सिहर उठी। उसने दोनों तरफ बारी-बारी से देखा। उन दोनों पुरुषों की उँगलियाँ उनके मोबाइल पर थीं। यह देख निकिता को कुछ तसल्ली हुई।
उसका जिम आ गया। उसने उतर कर ऑटो वाले को देखा, फिर बड़ी सतर्कता से नोट का कोना इस तरह से पकड़ा कि कहीं ऑटो वाले का हाथ उसके हाथ से ना छू जाए। ऑटो वाला जब तक नोट पकड़ता निकिता ने नोट छोड़ दिया। नोट फड़फड़ाता हुआ सड़क पर आ गिरा।
“आउच!” निकिता के मुँह से निकला।
“आप जाइए, मैं उठा लूँगा।”
निकिता जल्दी-जल्दी लिफ्ट की ओर बढ़ी। लिफ्ट का दरवाजा बंद हो रहा था। उसने लपक कर उसका बटन दबा दिया। दरवाज़ा खुल गया। निकिता लिफ्ट में दाखिल हो गयी। उसमें एक दढ़ियल सा आदमी पहले से था। उसे देख निकिता की साँस चढ़ गयी। लिफ्ट चल चुकी थी।
वह वापस तो जा नहीं सकती थी। मन ही मन अपने को कोसने लगी, “मुझे सीढ़ियों से जाना चाहिए था, अब कहीं ये....हुफ्फ्फ़!” निकिता ने एक हाथ से अपने बैग को सीने से चिपका लिया। और दूसरे हाथ के नाख़ूनों को नोचने के अंदाज़ में कर सतर्क हो गई।
वह आदमी लिफ्ट में लगे किसी विज्ञापन को देखने में मशगूल था। निकिता का फ्लोर आ गया। वह तेजी से बाहर भागी। एक गहरी साँस भरते हुए उसने जिम में प्रवेश किया।
निकिता बिना व्यायाम के ही पसीने से सराबोर हो चुकी थी। वह साईकिलिंग करने लगी।
लगभग पाँच मिनट बीते होंगे। जिम के ट्रेनर ने सूचना दी, “आज एक प्रतियोगिता होने वाली है...जो लोग भाग लेना चाहते हैं छत पर चलें...मैम आप लोग भी चलिए।” ट्रेनर ने निकिता के साथ-साथ अन्य लड़कियों से भी आग्रह किया।
छत पर कुल पंद्रह प्रतियोगी थे। जिनमें चार लड़कियाँ थीं। प्रतियोगिता का एक चक्र पूरा होने के बाद अंतराल हुआ। तो कुछ लोग नीचे चले गए। उसी समय अचानक बिजली चली गयी। छत पर घुप्प अँधेरा छा गया।
तभी निकिता को ध्यान आया कि तीनों लड़कियाँ भी नीचे चली गयी थीं।
निकिता थर्रा उठी, “मूर्ख हूँ मैं भी! मुझे भी नीचे चले जाना चाहिए था...क्या ज़रूरत थी धाकड़ बनने की! आज तो...”
अभी वह यह सब सोच ही रही थी कि एक आवाज़ आयी, “जो जहाँ है, वहीं खड़ा रहे...मैं मोबाईल की लाइट जलाता हूँ।”
“हाँ छत पर बहुत सामान बिखरा है...।” यह दूसरी आवाज़ थी। और इसके साथ ही मोबाईल की मद्दिम रोशनी जल गयी... हालाँकि अँधेरा अब भी था लेकिन मन में आशंकाओं का अँधेरा मिट चुका था।
 (26/03/2017)
(दिशा प्रकाशन द्वारा 'नई सदी की धमक' साझा लघुकथा संकलन में प्रकाशित)
                                                                  (चित्र गूगल से साभार)

सोमवार, 10 अप्रैल 2017

अपने-अपने सुख : लघुकथा

अलसुबह गुमटी पर चाय-बिस्कुट खाते महेश जी को उनके दो मित्रों ने देख लिया।
“भाई, ये महेश सुबह-सुबह गुमटी पर चाय पी रहा है, आखिर मामला क्या है?” एक मित्र ने कहा।
“अरे यही नहीं एक दिन बंदे को सट्टी से सत्तू खरीदते हुए भी देखा था, पूछने पर बोला, भाई रिटायर्मेंट के मजे ले रहा हूँ।” दूसरे मित्र बोले।
“सही कहा...मैं भी देख रहा हूँ कि जब से वह रिटायर हुआ है, सुबह पोते-पोतियों को स्कूल छोड़ने की ड्यूटी बजा रहा है।”
“और दिखाता ऐसे है जैसे कहीं की गवर्नरी
मिल गई हो।”
“हुँह...बेटे-बहुओं के राज में कैसी गवर्नरी?”
“चलो चलकर हाल-चाल लेते हैं।” दोनों मित्र गुमटी की ओर बढ़ चले।
“अरे, तुम दोनों इतनी सुबह यहाँ कैसे?” महेश जी ने चाय की चुस्की लेते हुए पूछा।
“लो कर लो बात...हम भी यही पूछना चाहते हैं कि आजकल यहाँ चाय क्यों...?”
“ओहोहोहो... भई गुमटी की चाय की लत तो मुझे कॉलेज के ज़माने से थी...नौकरी की भाग-दौड़ में न जाने कब छूट गई...सुबह सैर-सपाटे पर निकलता हूँ तो पुराने दिन दोबारा जी लेता हूँ...” महेश जी बोले।
“यार, हमसे क्या छिपाना...आदमी रिटायरर्ड हो और घर में बेटे-बहू का राज हो तो चाय गुमटी पर ही पीनी पड़ती है।”
“और ऐसे में सत्तू केवल मज़े लेने के लिए कोई नहीं खाता।” 

महेश जी गंभीर मुद्रा में आ गए और बारी-बारी से दोनों का मुँह ताकने लगे। फिर अचानक ठट्ठा मारकर हँस पड़े। दोनों मित्र एक-दूसरे का चेहरा ताकने लगे, “भाई...भले ही तुम हमारी बात को हँसी में उड़ा लो लेकिन तुम्हारी पीड़ा हम भली-भांति समझ रहे हैं।”

“हाँ-हाँ...भाई चोर-चोर मौसरे भाई! आप लोग नहीं समझोगे मेरी पीड़ा तो कौन समझेगा।” ऐसा कहते हुए महेश जी की हँसी व्‍यंग्‍यात्‍मक हो गई। तभी ट्रैक सूट में उनकी बहू वहाँ आ गयी।

“डैडी जी, आज घर नहीं चलना क्या?”

“हाँ-हाँ...चलना है।” कहते हुए महेश जी मुस्कुराए। और बोले, “आज हमारे साथ ये दोनों भी चलेंगे...इन्‍हें तुम्‍हारे हाथ की चाय भी पीनी है और सत्तू भी खाना है।“

01/04/2017

                                                                 (चित्र गूगल से साभार)


शनिवार, 4 मार्च 2017

काँटों में गुलाब : लघुकथा

गुलाब के पौधे पर कलियों के बीच एक फूल को झूमते देख मार्था के गुलाबी होठ लरज़ उठे। वह उसे बरबस निहारने लगी। तभी एक लड़का जो मार्था के यहाँ पेइंगगेस्ट था वहाँ आ पहुँचा।
“मैडम, क्या मैं यह गुलाब ले सकता हूँ?” मार्था अचकचा गई। उसने लड़के को ऊपर से नीचे तक देखा। फिर शरारत भरे अंदाज़ में पूछा, ‘‘गर्लफ़्रेण्ड के लिए?”
फिर थोड़ा ठहर कर बोली, “जा ले ले, और देखना कोई काँटा न साथ चला जाय।”
“जी, शुक्रिया!” लड़के ने फूल लेकर अपनी साइकिल के हेंडल में खोंसा और पैडल मारते हुए आगे बढ़ गया। मार्था स्नेहिल निगाहों से उसे जाता हुआ देखती रही।
“आंटी, आपने उसे गुलाब क्यों ले जाने दिया? कितने दिनों से आप उसके खिलने का इंतज़ार कर रही थीं?” यह दीपा थी, मार्था की दूसरी पेइंगगेस्ट।
“ गर्लफ़्रेण्ड के लिए ले जा रहा है ना।”
“तो खरीद कर ले जाता ना, कंजूस कहीं का!”
“नहीं दीपा, लगता है...यह भी पीटर की तरह...हालात से लड़ रहा है,” कहते हुए मार्था ने एक गहरी साँस छोड़ी।
“पीटर?” दीपा की निगाहों ने प्रश्न उछाला।
“मेरा बॉयफ़्रेण्ड। एक दिन जब उसने मेरे सामने शादी का प्रस्ताव रखा तो...”
** “मार्था, अभी मेरी ज़िंदगी में सिर्फ़ काँटे हैं...इस टहनी की तरह...संभव है उसमें कभी फूल न भी आएँ। क्या तुम मुझसे शादी करना चाहोगी?”
“पीटर, मैं तुमसे बेहद प्यार करती हूँ...पर क्या हम थोड़ा और इंतज़ार नहीं कर सकते, तुम्हारे सेटल होने तक?”
**
“दीपा यह गुलाब का पौधा वही टहनी है जिसे उस दिन पीटर ने यहीं डाल दिया था, लेकिन...”
“लेकिन क्या आंटी?”
“लेकिन उस दिन के बाद से पीटर मुझे कभी नहीं मिला। मैंने उसका बहुत इंतज़ार किया। फिर हेनरी से मेरी शादी हो गई। उसने मेरी ज़िंदगी को गुलाबों से भर दिया। लेकिन उनके बीच जो काँटे थे उन्हें मैं पहचान न सकी। शादी के कुछ साल बाद ही उसने मुझे डिवोर्स देकर एक बिजनेसमेन की बेटी से शादी रचा ली।”
“ओह...वेरी सेड, आंटी...” थोड़ा सोचकर दीपा बोली, “फिर तो उस लड़के को भी अपनी गर्लफ़्रेण्ड को गुलाब नहीं देना चाहिए?”
“दीपा, ये प्रपोज़ल का समय भी ना बहुत नाज़ुक होता है। एक हल्की सी धमक भी दिल को चकनाचूर कर देती है। मैंने पीटर से जो कहा वह ग़लत नहीं था, बस उसे कहने का वक़्त ग़लत था।”
“ह्म्म्म...लेकिन यह लड़का अगर संघर्ष में नाकामयाब रहा तो फिर तो उसकी गर्लफ़्रेण्ड के साथ धोखा हुआ ना?”
“ऐसा नहीं होगा दीपा, हमारा समय और था...आज की पीढ़ी में जूझने का जज़्बा है। अब तो लड़का-लड़की दोनों मिलकर अपने भावी जीवन की योजनाएँ बनाते हैं।”
“ओहो...थैंक यू आंटी!” दीपा थोड़ा सोचने लगी, फिर बोली, ”....अच्छा आंटी मुझे भी जाना है।”
“अरे आज तो छुट्टी थी...फिर तुझे कहाँ जाना है?”
“आंटी...आज प्रपोज़ल एक्सेप्ट करने का दिन है!” खिलखिलाती हुई दीपा भी उसी ओर चल पड़ी जिस ओर वह लड़का गया था।

सोमवार, 6 फ़रवरी 2017

टिप्स : लघुकथा

आज निक्की की हल्दी है। कमरे में साड़ियों के पैकेट बिखरे पड़े हैं। कुछ औरतें उन पर नामों की पर्चियाँ लगा रही हैं कि कौन सी साड़ी किसे देनी है। कुछ औरतें जो रिश्ते से निक्की की भाभी लगती हैं वे बीच-बीच में उसको ससुराल के नाम से छेड़ती भी जा रही हैं।

एक ने निक्की के गाल पर हल्दी लगाते हुए कहा, “ससुराल में क्या करना है क्या नहीं हमसे टिप्स लेती जाओ बन्नो रानी, फिर देखना राज करोगी राज।”
“टिप्स नम्बर एक, पहले दिन से ही काम करके अपनी सुघड़ता का परिचय मत देने लग जाना, वरना कामवाली ही बनकर रह जाओगी।” एक ने कहा।
“हाथ में मेहँदी चढ़ी रहने तक बिना कहे एक चम्मच भी ना धोना, वरना जिन्दगी भर के लिए हाथों से बर्तन मांजने का जूना लिपटा रहेगा...टिप्स नम्बर दो।” दूसरी बोली।
“शुरू में ही सास को पैर दबाकर सुलाने की आदत तो मती डारियो...बता देते हैं हाँ।” यह तीसरी बोली।
“और अगर ननदों को अपना मेकप-शेकप सिर चढ़ाया तो समझ लो हाथ से गयी सिंगार पेटी।” चौथी ने बात जोड़ी।
“एक बात और जो तेरी खास साड़ियाँ हैं उन्हें अभी मत ले जा, कहीं सासू माँ का दिल आ गया तो उनसे हाथ धो बैठेगी सो अलग, उम्र भर नया पहनने को तरस जाओगी।” पाँचवी ने नज़दीक आकर कहा।
निक्की उनकी बातें सुनकर पहले तो मुस्कुराई। फिर बोली, “भाभी, आप लोग तो मुझे ऐसे समझा रही हो जैसे मुझे ससुराल नहीं किसी जंग में जाना है।”
“ये लो कर लो बात, ये जो ससुराल के खबसूरत खाब सजाए बैठी हो न बिल्लो, पहुँचोगी तो पता चलेगा।”
“मुझे डरवा रही हो भाभी।”
“अरे हम क्यों डरवाने लगे, होता ही ऐसा है, सो वही समझा रहे हैं।”
“भाभी अभी जिसको ठीक से जाना नहीं उसके लिए ऐसी राय बना लेना क्या ठीक है?”
“ओहो, बन्नो रानी तो अभी से ससुराल के सुर में बोलने लगीं।”
“क्यों भाभी, आख़िर वह भी तो मेरा ही घर होने वाला है।”
तभी पास पड़े निक्की के मोबाइल पर एक नम्बर चमका। उसे देख निक्की के चेहरे पर लालिमा युक्त मुस्कान तिर आयी। उसने पास बैठी उन औरतों में से एक को हाथ में लगी हल्दी दिखाते हुए फ़ोन रिसीव कर उसके कान से लगाने को कहा। हाव-भाव देखकर वह औरत शायद समझ गई कि फ़ोन निक्की के ससुराल से है। इसलिए उसने फ़ोन रिसीव कर स्पीकर ऑन कर दिया।
पहले तो निक्की थोड़ा सकपकाई फिर स्पीकर ऑन पर ही बोलने लगी, “हेलो माँ! प्रणाम!”
“खुश रहो, क्या हो रहा है?”
“बस अभी हल्दी लग रही है...तो...”
“ओह्हो, गलत समय फ़ोन कर दिया...अच्छा सुन कुछ वेस्टर्न ड्रेसेज़ भिजवा रही हूँ ट्रायल के लिए जो-जो पसंद आये रख लेना...ठीक है...फ़िर बाद में फ़ोन करती हूँ...”
“जी माँ...!”
फ़ोन कट गया। निक्की ने कमरे में बैठी औरतों पर एक सरसरी निगाह डाली। थोड़ी देर पहले जहाँ टिप्स का शोर गूँज रहा था, अब वहाँ सुई पटक सन्नाटा छाया हुआ था।
उसने माहौल को थोड़ा हल्का बनाने के लिए चुटकी ली और मुस्कुराते हुए बोली, “हाँ भाभियों, तो अगली टिप्स?”

('क्षितिज' 2018, अंक - 9 में प्रकाशित ) 
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(चित्र गूगल इमेज से)

रविवार, 22 जनवरी 2017

कोहरा : लघुकथा

कोहरा छंट गया था। वातावरण में ठण्ड की चुभन बरकरार थी। रफ़्ता-रफ़्ता नुक्कड़ पर लोगों की आवा-जाही शुरू हो गई थी। हमेशा की तरह भोला के ढाबे पर चाय के तलबगारों का जमावड़ा जुटने लगा था। उसके सामने लैंपपोस्ट के खम्भे के नीचे बेरवाली भी आकर बैठ गई थी। अपने आस-पास पड़े रैपरों व पोलीथीन की थैलियों को जलाकर वह अपनी ठिठुरती उंगलियाँ सेंकने की कोशिश कर रही थी।
उधर सुरतिया चार-पाँच रोज़ से बुखार में बेसुध पड़ी थी। आज थोड़ा होश आया तो नंदू की चिंता सताने लगी। खटोले पर लेटे-लेटे धोती के पल्ले से पाँच का सिक्का खोल कर नंदू को थमाते हुए कहा, “जा नुक्कड़ से कुछ खरीदकर खा ले।”
“अम्मा थोड़े और पैसे दे ना, आज इमरती खाने का बड़ा मन कर रहा है।” नंदू ठुनका।
“अकेल्ली यही पंजी बची है बिटवा...एतने रोज से काम पर नहीं गए...” आँखों को ढपते हुए सुरतिया ने समझाया।
नंदू साइकिल का टायर लुढ़काते नुक्कड़ की ओर चल पड़ा। बेरवाली की अभी तक बोहनी नहीं हुई थी। वह अभी भी पोलीथिन सुलगा रही थी। बीच-बीच में आवाज़ भी लगाती जा रही थी।
“चचा, हमको समोसा चाहिए।” नंदू ने पाँच का सिक्का भोला की ओर बढ़ाते हुए कहा।
“पाँच में समोसा नहीं मिलता...क्यों सुबह-सुबह बोहनी का टाइम खराब करता है।” भोला ने नंदू को प्या‍र से डपटा। नंदू रुआँसा हो गया। वह ढाबे में तले जा रहे समोसे और जलेबियों को बड़ी हसरत से देखने लगा।
“लेओ मीठे-मीठे बेर!” बेरवाली ने फिर आवाज़ लगाई।
उसकी आवाज़ सुनकर नंदू उसे देखने लगा। उसकी नज़र सुलगते रैपरों पर पड़ी। वह उसके पास जाकर खड़ा हो गया। चिट-चिट कर जलते रैपरों को देख कर वह मुस्कुराने लगा। शायद उससे उठने वाली रंगीन लपटों के आकर्षण ने थोड़ी देर के लिए उसकी समोसा खाने की इच्छा को भटका दिया था। नंदू ने अपना टायर लपट के ऊपर कर दिया। टायर जलने लगा। आग तेज होने लगी। बेरवाली उसमें अपने हाथ-पैर सेंकने लगी। उसने मुस्कुराकर नंदू को देखा। फिर डलिया से कुछ बेर लेकर नंदू के हाथ में थमा दिया। धीरे-धीरे टायर आग के गोले में बदल गया।
समय की आग में बहुत कुछ बदल गया। भोला का ढाबा काँच के केबिन में बदल गया। उसकी कुर्सी गद्देदार हो गई है। अब वहाँ उसका बेटा बैठता है। लैंपपोस्ट के खम्भे के नीचे अब नंदू सिंघाड़े का ठेला लगाता है। ठेले के ठीक नीचे एक बूढ़ी औरत सिंघाड़ा उबालती है। और कोहरा है कि फिर छा जाता है।

रविवार, 8 जनवरी 2017

बर्फ़ीले दरम्यान :लघुकथा

तुषार ने अचानक एलान किया कि इस बार न्यू इयर पार्टी के लिए उसने अपने बॉस को सपत्नीक निमंत्रित किया है।
“अंकिता, मैं बताना भूल गया था, खाना मैंने होटल से ऑर्डर कर दिया है।’’ सुबह-सुबह तुषार ने कहा।
अंकिता ने उसकी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि डाली, जैसे पूछ रही हो, ‘क्यों?’
“वो क्या है कि...बॉस की बीवी थोड़ा...मतलब ये कि घर-वर का खाना उन्हें सुहाता नहीं है न।’’
“तो उन्हें किसी होटल में ही पार्टी दे देते ? ’’
“हाँ, पर होटल में पार्टी देना जेब को भारी पड़ सकता था।’’
“ठीक है, तो मैं घर व्यवस्थित कर लेती हूँ।’’
“अरे नहीं, तुम रहने दो, मैंने ऑफ़िस के दो वर्कर्स को बुला लिया है, वे आधुनिक साज-सज्जा करने में निपुण हैं, और बॉस की बीवी का मिजाज़ भी खूब समझते हैं।’’
“अच्छा तो फिर मुझे आज क्या करना है,यह बता दो।’’अंकिता ने खीझकर कहा।
“तुम अभी बस चाय बनाओ, और फिर किसी पार्लर में जा कर थोड़ा मेकअप-शेकअप करवा लो...वो..क्या है न कि...।’’
“कि बॉस की बीवी को तुम्हारी देहातन बीवी सुहाती नहीं है न।’’ तुषार की बात पूरी होने से पहले ही अंकिता चिढ़ कर बोली।
“ऐसा नहीं है अंकिता, मैं चाहता हूँ कि तुम किसी बात में कम न लगो, और पहले भी तो तुम पार्लर जाती ही थीं।’’
रोज़मर्रा के काम निपटा कर अंकिता पार्लर पहुँची। शादी से पहले तो तुषार को अंकिता का सजना-संवरना, घर को मेंटेन करने का अंदाज़, उसके हाथ का बनाया खाना, सब कुछ अनूठा लगता था। वही अंकिता आज बॉस की बीवी के आगे फूहड़ लग रही है। लेकिन इसमें तुषार का क्या दोष।
माना कि तुषार की नौकरी के शुरुआती तीन-चार साल संघर्ष में गुज़रे। जिस वजह से उनका हाथ तंग था। किन्तु बाद में तो सब ठीक हो गया था। अपने ऊपर ध्यान देना उसने खुद ही तो छोड़ दिया था। जब कहीं बाहर जाना होता तो वह खुद बच्चों के या काम के बहाने टाल देती थी। तुषार कई बार उसके इस रवैये से दुखी हो जाता था।
“मैडम, आपका मेकअप कम्प्लीट हो गया।’’ पार्लर वाली की आवाज़ उसे वर्तमान में ले आई।
वह आईने के सामने आई तो चौंक पड़ी। उसके सामने जैसे बीस साल पहले वाली अंकिता खड़ी थी। ‘वही नैन-नक्श, वही अदा...कुछ भी तो नहीं बदला था...फिर क्यों वह..?’ अंकिता मन में निरुत्तरित प्रश्न लिए घर की ओर चल दी।
अंकिता घर के अन्दर दाखिल हुई। उसने देखा पूरे घर का नक्शा ही बदला हुआ है। एक बार तो उसे लगा वह किसी और के घर में आ गई है।
“अरे वाह, क्या बात है, आज तो जरूर किसी पर बिजली गिरेगी।’’ तुषार ने उसे देखते ही चुटकी ली।
अंकिता ने तिरछी निगाहों से तुषार को देखा। उसकी आँखों में शरारत थी। लाज से अंकिता के गालों की सुर्खी और बढ़ गई।
“अरे, आपने खाने का ऑर्डर दिया था, उसका क्या हुआ ?” अंकिता ने झेंपकर जैसे बात बदलने की कोशिश की।
“वो भी आ जाएगा, तुम बस इधर आकर बैठो।” तुषार ने उसे खींच कर अपने बाजू में सोफ़े पर बैठा लिया।
फिर वह हौले से उठा। उसने कमरे की सारी लाइट बंद कर दीं। अब मोमबत्तियों की रौशनी में कमरे का संगीतमय वातावरण किसी महँगे होटल की शानदार पार्टी सरीखा लगने लगा था।
तुषार हौले-हौले पास आया और फिर एक घुटने को फर्श पर टिकाते हुए बैठकर बोला, “लीजिए, मिलिए बॉस से! ”
“बॉस ! आ गए क्या !” कहते हुए अंकिता ने दरवाजे की ओर नज़र डाली।
“जी हाँ बिग बॉस मिसेज़ अंकिता। मैडम, आज की न्यू इयर पार्टी आपके नाम!”
“तुषार, यह सब क्या है!” अंकिता हतप्रभ थी।
तुषार ने उसे कांधे से पकड़कर उठाया और अपने हाथ में उसका हाथ लेते हुए बोला, “अंकिता, बस ये समझ लो कि आज हमारे बीस साल पहले वाले दिन वापस आ गए हैं।”
“सचमुच?” अंकिता ने तुषार की आँखों में जैसे अपनी आँखें डाल दीं।
“हाँ अंकिता और मैं इन्हें फिर कभी जाने नहीं दूँगा।” तुषार के हाथों की गर्मी ने उन दोनों के दरम्यान जमीं बर्फ़ को पिघला दिया था। अंकिता भावावेश में तुषार से लिपट गई ।