मंगलवार, 18 अगस्त 2015

‘जलकुंभी’ लघुकथा

“उफ़्फ़ ! क्या मुसीबत है, लगता है आज का दिन ही मनहूस है !“

मैं झुंझलाते हुए कार से उतरी । सुबह अस्पताल से आई खबर ने मन को पहले ही खिन्न कर रखा था, ऊपर से रास्ते में कार अलग ख़राब हो गई । हाइवे पर आती-जाती गाड़ियों को हाथ दिखाकर रोकने की कोशिश की किन्तु वे सभी सनसनाती हुई निकल गईं । पास में मैकेनिक की एक गुमटी थी, पर वह बंद थी । हाइवे से उतर कर थोड़ी दूर चलने पर एक झोपड़ा दिखाई दिया, मैं उधर चल पड़ी । उसके पास जाने पर ढोलक की थाप और औरतों के गाने की आवाजें सुनाई देने लगीं, शायद कोई उत्सव मनाया जा रहा था । झोपड़े के बाहर खटोले पर एक बूढ़ी बैठी थी ।

मैंने उससे पूछा –

“अम्मा, मेरी कार ख़राब हो गई है, धक्का लगाने के लिए अपने लड़कों को भेज देंगी ?”

“आइये बीबी जी, बड़े संयोग से आपके पाँव हमारे झोपड़े में पड़े हैं, बैठिये ।” चहकते हुए बूढ़ी ने एक छोटी सी चौकी की ओर इशारा किया ।

“अम्मा ! कोई मदद मिल सकती है कि नहीं ?” मेरी झुंझलाहट और बढ़ गई ।

“अरे बीबी जी ! लीजिये पहले मुँह तो मीठा कीजिये !“

अब मुझे उसपर क्रोध आने लगा, मैं वापस हाइवे की ओर जाने के लिए मुड़ने लगी तो
उसने हाथ के इशारे से रोकते हुए आवाज़ दी ।

“ओ संतोषी ! सड़क पर बीबी जी की कार खराब हो गई है, जा जाकर ठीक कर दे और
धक्का मारने के लिए पिंकी, पूजा को भी लेती जाना !“

“अच्छा अम्मा !” झोपड़े के अंदर से आवाज़ आई ।

मैं हतप्रभ सी कभी उसे कभी झोपड़े से निकल कर आती हुई उन तीनों युवतियों को देखने लगी ।

“अरे बीबी जी आप चिंता न करो, ये मेरी बहू बहुत अच्छी मैकेनिक है । ब्याह कर आते ही मैंने बेटे से कहकर इसे भी मैकेनिक का काम सिखवा दिया था, अब ये उससे भी ज्यादा होशियार हो गई है ।“

“अच्छा, ये तो बहुत अच्छी बात है !!!” मैंने आश्चर्य से उसे देखा ।

“आज मेरी पोती का जन्मदिन है इसलिए ये काम पर नहीं गई और पिंकी, पूजा मेरी बेटियाँ हैं जो ससुराल से आई हैं, शाम को पार्टी है ना ।“ उसने पोपले मुंह पर मुस्कराहट बिखेरते हुए कहा ।

न जाने क्या था उसकी मुस्कराहट में जिसने मेरे मन के सरोवर में उग आई जलकुम्भियों को उखाड़ फेंका था । अब मुझे अस्पताल पहुँचने की जल्दी थी, बहू के साथ मिलकर पार्टी का मेन्यू जो तैयार करना था ।

शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

‘प्रतिदान’ : लघुकथा

उमस इतनी थी कि थोड़ी दूर चलते ही मैं पसीने से तर-बतर हो गई । रिक्शे के लिए मैंने इधर-उधर नज़र दौड़ाई, तभी सामने से एक रिक्शावाला आता दिखा । पास आने पर रुकते हुए उसने मेरी तरफ प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा ।
“नाके तक जाना है, कितना लोगे ?“
“पचास रुपये ।“
“क्या !!! तीस होते हैं !!!“ कहकर मैं आगे बढ़ने लगी ।
“ठीक है चालीस दे देना ।“ अंगोछे से मुंह का पसीना पोछते हुए वह बोला ।
“न, तीस !!!“
“अच्छा बैठो ।“
रिक्शे पर बैठने पर मैंने राहत की साँस ली । चलते हुए रिक्शे पर मंद-मंद लगने वाली हवा के झोंको का आनंद लेते हुए मैंने आँखें बंद कर लीं । तभी रिक्शेवाले की कमीज़ से पसीने की बदबू का भयंकर भभका मेरे नथुनों से टकराया, मैंने नाक को रूमाल से ढक लिया । अब रिक्शे पर बैठना दूभर हो रहा था, मैं गंतव्य का बेसब्री से इंतज़ार करने लगी ।
“रात होने लगी तो लगा कि आज कोई सवारी नहीं मिलेगी ।“ पैडल मारते हुए वह बोला।
“लगता है तुम इस शहर में नए हो ?”
“जी हाँ ।”
“हम्म, तभी इस पौश इलाक़े में सवारी ढूंढ रहे हो ?“
“भला हो ऊपर वाले का, जो आपको भेज दिया, वर्ना आज भूख से मर जाता, सुबह से पेट में कुछ नहीं गया है ।“
थोड़ी देर में नाका आ गया । उतर कर मैंने उसकी तरफ पचास रूपए बढ़ाए ।
“बहन जी, टूटे नहीं हैं ?” उसने परेशान होकर पूछा ।
“पूरे रख लो ।“
उसने अचरज से मेरी ओर देखा, फिर रूपये लेकर पहले रिक्शे के हैंडिल से फिर माथे से लगाते हुए पूछा –
“बहन जी, आपको वापस घर भी तो जाना होगा न ?”
“हाँ, पर....क्यों ?” मैं हैरत से उसे देखने लगी ।
“मैं उस सामने वाले ढाबे पर खाना खा रहा हूँ, जब आप लौटेंगी तो आपको वापस घर पहुंचा दूंगा, इसी पैसे में ।”

रविवार, 5 अप्रैल 2015

'महत्वाकांक्षा'

बुलंदियों पर पहुँचने के जुनून में, उसके क़दम जल्दी-जल्दी आकाश में लगी सीढ़ी पर बढ़ते जा रहे थे । उसने देखा, मंज़िल और उसके बीच बस एक क़दम की दूरी बची है । जैसे ही उसने अपना पाँव अंतिम सोपान पर रखा, तो देखा मंज़िल अंगारों सी दहक रही थी । वह घबरा गया और वापस उतरने के लिए मुड़ा तो सोपानों को देख उसके मुँह से भयंकर चीख निकल गयी, पाँव फिसला और उसकी आँखें खुल गयीं । वह एक भयानक स्वप्न की गिरफ्त से तो बाहर आ गया था किंतु, सोपानों में उभरे वो रक्तरंजित चेहरे अब भी उसकी रूह को कँपा रहे थे, जिनमें से एक चेहरा उसका खुद का था ।
 

सोमवार, 23 मार्च 2015

‘फ़रिश्ता’

एक तो सड़ी गर्मी ऊपर से जाम में फंसी बस, सामने की सीट पर औरत की गोद में बच्चा दहाड़ें मार रहा था । उसकी बगल में बैठा आदमी बच्चे को गोद में लेकर कभी चुटकी बजा, कभी मोबाईल बजा, तो कभी उछाल कर फुसलाने की भरसक कोशिश कर रहा था । यह प्रक्रिया काफ़ी देर से चल रही थी इसलिए यात्रियों का भी ध्यान केंद्रित किए हुए थी, परेशान होकर उस आदमी ने बाहर झांका और बस से नीचे उतर गया, किसी तरह से वाहनों कूदते-फांदते थोड़ी देर बाद दूध लेकर लौटा ।

धीरे-धीरे जाम छंटने लगा बस ने भी रफ़्तार पकड़ ली थी । थोड़ी देर बाद वह आदमी उठकर गेट पर आया उसकी शर्ट की एक बांह और पैंट गीली थी, उसने इशारे से बस रुकवाई और अपना बैग लेकर नीचे उतर गया बस फिर चल पड़ी, यात्रियों की नज़रें एक दूसरे से टकराईं जिसमें हर्षान्वित आश्चर्य था । बच्चा खिड़की पकड़ खड़ा किलकारी मार रहा था ।


रविवार, 1 मार्च 2015

‘अर्जुन का अंगूठा’

एक नन्हा कबूतर  जिसे अभी ठीक से उड़ना नहीं आता था, भटक कर एक बाग़ में पहुँच गया । वहाँ उसने देखा कि एक हंस अन्य पक्षियों को उड़ने के गुर सिखा रहा है। कबूतर ने भी आग्रह किया और उड़ना सीखने लगा । धीरे-धीरे कबूतर ऊँचे-ऊँचे पेड़ों तक उड़ान भरने लगा , ये देख हंस को उस पर बहुत गर्व होता था। बाग़ में एक बहुत ऊँचा वृक्ष था जिसके शीर्ष पर नन्हें फूल खिले थे जो कभी झड़ते नहीं थे। एक दिन हंस ने एक प्रतियोगिता रखी कि जो उन फूलों को तोड़कर लायेगा वह विजयी होगा। सभी पक्षियों ने उड़ानें भरीं परन्तु कोई भी शीर्ष तक नहीं पहुँच सका तभी हंस ने देखा कि नन्हा कबूतर अपनी चोंच में फूल लेकर सामने खड़ा है। यह देखकर हंस को अत्यंत प्रसन्नता हुई और हैरानी भी क्योंकि अभी तक सिर्फ वही उन फूलों को छू पाया था।
कुछ दिन बीतने पर हंस ने सभी पक्षियों की परीक्षा लेने की सोची। पास ही एक पहाड़ी थी जिसकी चोटी पर अद्भुत फल लगे थे, उसने सभी पक्षियों से कहा कि जो उस पहाड़ी से फल तोड़कर लाएगा वो इस परीक्षा में उत्तीर्ण माना जायेगा और उसे ही सर्वश्रेष्ठ उड़ाका का पुरस्कार दिया जाएगा। प्रातः सभी पक्षी उड़े किंतु पहाड़ी की चोटी इतनी ऊँची थी कि बेचारे थक कर वापस आ गए, धीरे-धीरे शाम होने लगी सबने देखा वो कबूतर अभी तक वापस नहीं लौटा था, पक्षियों को चिंता होने लगी किंतु हंस के मुख पर अपूर्व संतोष झलक रहा था, उस पहाड़ी के फल ज़हरीले थे।

मंगलवार, 27 जनवरी 2015

‘पीले पत्ते’

“हेलो ऋतु ! मैं पार्क में तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ, तुम आ रही हो ना ?”
“आ रही हूँ ! माय फुट ! मैं तो तुम्हारी शक्ल भी नहीं देखना चाहती !”
“इतनी नाराज़गी ! “देखो, हम लिव इन रिलेशनशिप तो रख ही सकते हैं, और अब तो इसका चलन भी है।”
“लिव इन रिलेशनशिप ! शिशिर, तुमने मुझे धोखा दिया, मेरा तुमसे कोई वास्ता नहीं, अब मेरी जिंदगी के पीले पत्ते गिर चुके हैं, मैं वसंत से शादी करने जा रही हूँ, और खबरदार ! जो अब मुझे कॉल किया तो !”



शनिवार, 4 अक्टूबर 2014

गाँधीमय

    एक प्राथमिक विद्द्यालय में गाँधी जयंती समारोह का आयोजन बड़े उत्साहपूर्वक भावपूर्ण रूप से मनाया जा रहा है, प्रांगण में बापू के चित्र के समक्ष सभी शिक्षक और विद्द्यार्थी खादी वस्त्र धारण किये हुए एक साथ करबद्ध खड़े विभोर हो प्रार्थना कर रहे हैं - वैष्णव जन तो....पीर पराई....मद्ध्यांह् भोजन तैयार हो रहा है, बच्चों के भोजन के लिए  टाट पर कतार से सभी थालियाँ सजाई गई हैं और कुछ थालियाँ प्रांगण से दूर अलग-थलग कोने में  रखी गई हैं, सारा वातावरण  गाँधीमय हो गया है |