बरखा के मौसम में जब
बादल घिर-घिर आता है
ठंडी हवाओं के झोंकों से
आँचल उड़-उड़ जाता है
नन्हीं चंचल बूंदों का जब
धरती पर रेला आता है
तन निर्मल धारों को पकड़
आसमान चढ़ जाता है
आसमान में रंगों का जब
सतरंगी मेला आता है
इन्द्रधनुष के झूलों में चढ़
मन ऊँचे पेंग लगाता है
बरखा की टिप-टिप जब
सुर मधुर गुंजाता है
हर मुख मस्ती में आकर
मेघ-मल्हार गुनगुनाता है
कराह रही है धरती अपनी
तड़प रहा है जन-जीवन
लुट गई हरियाली जिसकी
काट दिए वन-उपवन
छीन लिए जिसके सुन्दर आवरण
खतरे में पड़ गया उसका पर्यावरण
छाती थी घटाओं की परत तब
तार-तार हुए ओज़ोन परत अब
बनते थे जिसपे हरित गृह
बन गई वह स्वयं हरित का गृह
पिघल रहे हैं हिमनद कट-कट
हो जाएँगे जल-प्लावन सागर तट
थी कभी जहाँ सावन की हवाएं
बह रही वहां पसीने की धाराएं
चलती थी जहाँ पवन हौले-हौले
बरस रहे वहां आग के शोले
लूट लिया संसाधन जिसका
बचाना है अब अस्तित्व उसका
आओ मिलकर प्रण करें
जननी के लिए कुछ कर्म करें
घर-घर एक वृक्ष लगाएं
धरती के पर्यावरण को बचाएँ
फिर आएगा हरियाला सावन
नाच उठेगा मयूर मन वन