मंगलवार, 13 दिसंबर 2016

जरीब (लघुकथा)

“दीपा, हमें कल गाँव जाना होगा, अपने खेतों का हिस्सा-बाँटा करने के लिए।‘’
‘’क्यों ?’’
‘’पता चला है कि बड़े भैया हमारे हिस्से वाले खेतों की मिट्टी ईंट के भठ्ठे वालों को बेच रहे हैं।” मीता आवेश में बोली।
“ये तो गलत बात है, इससे तो हमारे खेत बंजर हो जाएँगे!... सच दीदी, पिताजी ने ताऊजी के परिवार के लिए इतना कुछ किया लेकिन उनके बेटे ने....” यह सुनकर दीपा भी भड़क उठी।
“ऐसा नहीं है दीपा। पिताजी ने बताया था कि ताऊजी ने खेतों में काम करके पिताजी को पढ़ाया। उन्हें कभी कोई कमी महसूस नहीं होने दी।”
“ठीक है, कम से कम उनके बेटे....।”
“…दीपा, वे हमारे बड़े भैय्या हैं...।” मीता ने दीपा को टोका।
“…तो हाँ, दीदी...बड़े भैय्या को यह तो सोचना ही चाहिए था कि खेतों में हमारा भी हिस्सा है।”
“बस, अब हम खेतों को यूँ बर्बाद नहीं होने देंगे। अपना हिस्सा अलग करवा कर किसी और को बटाई पर दे देंगे।”
अलगे दिन कार से मीता और दीपा गाँव के लिए रवाना हो गईं। दोपहर तक वे गाँव पहुँच गईं। बड़े भैय्या ने उन्हें स्थिति समझाने की कोशिश की। लेकिन उन दोनों ने जिद पकड़ ली कि नहीं हमारे खेत अलग कर दिए जाएँ, फिर उन्हें अपने खेतों के साथ जो करना हो वे करें।
थोड़ी देर बाद खेतों की नपाई शुरू हो गई। लेखपाल जरीब से नापकर खेतों में निशान लगवाने लगा। शाम होते-होते खेतों का बँटवारा हो गया।
“दीदी, यहाँ का काम तो हो गया। आगे का क्या प्लान है?”
“वापस चलते हैं। पर बहुत रात हो जाएगी...”
“ठीक है, रास्ते में किसी होटल में स्टे कर लेंगे।”
दोनों कार की तरफ़ बढ़ी ही थीं कि बड़े भैय्या की बेटी ने आकर कहा, “बुआ चलिए खाना खा लीजिये, मम्मी अंदर बुलाईं हैं।”
जब तक दोनों उससे कुछ कहतीं तभी एक और आवाज़ आई।
“राती में लौटब ठीक ना हव बच्ची। बिहाने जाया। तोहार लोगन के कमरा साफ़ करवा देले हई।”
दोनों चौंककर पलटीं। पीछे बड़े भैय्या खड़े थे। दोनों सकपका एक-दूसरे का मुँह देखने लगीं। वे बड़े भैय्या के इस आग्रह को ठुकरा ना सकीं।
“क्या सोच रही हो दीदी?” रात को बिस्तंर में लेटे-लेटे छत ताकती मीता से दीपा ने पूछा।
“यही कि हमने शायद ठीक नहीं किया।‘’
‘’क्यों?’’
‘’अब देख न खेत तो बँट गए, लेकिन जो दिलों में बसे प्यार को बाँट दे ऐसी कोई जरीब नहीं बनी।”
“सच! एक बात कहूँ दीदी?”
“क्या?”
“यही कि क्यों न हम अपने खेत बड़े भैय्या को ही दे दें बटाई पर?”
मीता ने दीपा की ओर ऐसे देखा जैसे वह यही सुनना चाहती थी। मीता को लगा जैसे उन्होंने दिन में कोई अपराध किया था और अब उसके प्रायश्चित का तरीका मिल गया है।
उसने दीपा के गले में बाँह डाली और बोली,’’ चल सो जा, अब सुबह उठकर भैया से सबसे पहले यही बात करेंगे।‘’

सोमवार, 5 दिसंबर 2016

परिवेश (लघुकथा)

“देखिये ये बच्चों की तस्वीरों का कोलाज उनके कमरों के लिए बनवाया है!’
“बहुत अच्छा है।”
“और ये हमारी तस्वीरों का कोलाज, अपने बेडरूम के लिए।”
“अरे वाह, ये वाली तब की है ना जब ईशा होने वाली थी?”
“नहीं, ये हमारी शादी की पहली सालगिरह की है।”
“अरे हाँ याद आया, तुम साल भर में एकदम गोला बन गई थीं न...” कहते हुए विशाल ने बाईं आँख दबा दी।
“जनाब, मैं गोला नहीं हुई थी समझे, वो साड़ी ही फूली-फूली थी।” रुठते हुए नीना ने विशाल की बाँह में चिकोटी काटी।
“हा हा हा, नाराज़ हो गई मेरी नीनू।” कहते हुए विशाल उसके नज़दीक सरक आया।
“हटिये, मुझे अभी बहुत काम है।” कहते हुए नीना तस्वीर लेकर बच्चों के कमरे में चली गई।
‘’ईशा, ये तेरी और आशू के बचपन की तस्वीरों का कोलाज है, ज़रा इस दीवार पर टंगवाने में मेरी मदद कर।” नीना बोली।
“लेकिन मम्मा, उस दीवार पर तो मैं कुछ और लगाऊँगी।”
“अरे तो उसके लिए बगल वाली दीवार हैं ना।”
“नहीं, उस दीवार पर तो इसे बिल्कुल भी मत लगाना।” आशू बोल पड़ा।
“क्यों, तुझे इससे क्या तकलीफ़ है?”
“मम्मा, वहाँ मैं अपने फ़ेवरेट फ़ुटबाल प्लेयर्स का पोस्टर लगाऊँगा।”
“और इस दीवार पर मैं अपने फ़ेवरेट मॉडल्स का पोस्टर लगाऊँगी।”
नीना अपने कमरे में आकर निढाल सी बेड पर बैठ गई। मानो उसके उत्साह रूपी गुब्बारे में किसी ने सुई चुभो दी हो। विशाल ने कनखियों से नीना को देखा। नीना के हाथ में तस्वीर देख उसने माज़रा भाँप लिया।
वह बोला, “नीना, वो मैं कह रहा था कि बच्चों की तस्वीरों वाला एक कोलाज अपने बेडरूम में भी होता तो अच्छा रहता।”
“उम्म....हाँ...शायद आप ठीक कह रहे हैं ।” नीना ने पैर के अंगूठे से फ़र्श कुरेदते हुए जवाब दिया।
“क्या हुआ?” विशाल उसके निकट आकर बैठ गया।
“कुछ नहीं।”
“देखो नीना, जब बच्चे बड़े होने लगते हैं तो उनका रहन-सहन, उनका पहनना-ओढ़ना उनके परिवेश के अनुसार ढलने लगता है। और ये होना भी चाहिए।”
“वो तो ठीक है, परन्तु ये तस्वीर उनका क्या बिगाड़ रही थी?”
“नीना, बात तस्वीर की नहीं है। यह पीढि़यों का अंतर है। उनकी पीढ़ी हमारी पीढ़ी से कुछ अलग सोचती है। क्या तुम चाहोगी कि इन छोटी-छोटी बातों को लेकर हमारे और बच्चों के बीच यह पीढि़यों का अंतर और बढ़े?”
“न ना, बिलकुल भी नहीं। मैं चाहती हूँ कि वे भी खुश रहें और हम भी।” नीना के अंदर जैसे चेतना लौट आई।
“ये हुई न बात, तो अब ये बताओ कि इस तस्वीर को कहाँ लगाना है?”
“एकदम हमारी नज़रों के सामने, उस दीवार पर।”
“ओके, योर हाइनेस।” विशाल ने इस अंदाज़ से सिर झुकाया कि नीना की सारी उदासी काफ़ूर हो गई।
दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े।

रविवार, 27 नवंबर 2016

‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ (लघुकथा)

“अरे, आपने अभी तक कुछ नहीं खाया?” घर आते ही जया ने डाइनिंग टेबल पर निगाह डालते हुए आरना से पूछा।

“-------------“

“आरना, मम्मा कुछ पूछ रही हैं न।”

“-------------“ आरना अनसुना कर रिमोट के बटन दबाती रही।

“ओ-ओ ! मेरी बेबी नाराज़ हो गई क्या ?” आरना को बाँहों में भरते हुए जया ने पुचकारा।

“मैं आपसे बात नहीं करूँगी।”

“मम्मा से बात नहीं करोगी, क्यों ?” जया ने उसको चूमते हुए पूछा।

“क्योंकि आप मुझे पार्क में खेलने नहीं जाने देती हो।”

“अरे, तो जब आपको खेलने के लिए टेरेस है, बालकनी है फिर पार्क में जाने की क्या ज़रूरत?”

“सब बच्चे पार्क में खेलते हैं, लेकिन आप मुझे टेरेस पर खेलने को बोलती हो।”

“वो इसलिए बोलती हूँ कि...कि...कि...” कहते हुए जया ने आरना के पेट में गुदगुदा दिया। आरना खिलखिलाकर हँस पड़ी।

“आप रेकेट लेकर टेरेस पर चलो, मम्मा अभी हाथ-मुँह धोकर आती है, फिर दोनों ख़ूब खेलेंगे, ओके !”

“ओके मम्मा, जल्दी आना।”

आरना को भेजकर जया हाथ-मुँह धोने लगी। आइने में चेहरा देखते हुए उसे ससुराल की याद हो आई।

“अविनाश, तुम्हें इस लड़की और हममें से एक को चुनना होगा।“

“पिता जी, आख़िर जया में क्या कमी है ?”

“कमी जया में नहीं, उसके स्टेटस में है।“

“मैं जया को नहीं छोड़ सकता।“

आरना के जन्म के बाद उसने अविनाश के चोरी-छिपे सास-ससुर को मनाने की नाकाम कोशिश की थी। अविनाश को जब यह बात पता चली तो वह बहुत क्रोधित हुआ था। जब अविनाश का एक्सीडेंट हुआ था तो उसने उन्हें खबर करने को भी मना कर दिया। अविनाश चला गया।

“हा हा हा...दादू हार गए ! दादू हार गए !” आरना की आवाज़ ने उसे वर्तमान में ला खड़ा किया।

“दादू ! ये आरना किसे पुकार रही है ?” कहते हुए जया जल्दी-जल्दी टेरेस की सीढियाँ चढ़ने लगी।

“आरना !”

“मम्मा ! देखो मैंने दादू को हरा दिया !”

“मैं शिवाकांत हूँ। बगल वाले फ़्लैट में रहता हूँ।”

“आरना, बेटा अंकल को क्यों परेशान किया ? खेलने के लिए मम्मा आ रही थी ना।”

“खेलने दीजिये ना। मेरी पोती भी इसी के बराबर है। लेकिन...” कहते हुए शिवाकांत का गला भर्रा गया।

“क्या हुआ ?” जया ने प्रश्न किया।

“मेरे बेटे ने अमेरिका की सिटिज़नशिप ले ली है।”

“ओह !”

“वैसे तो अकेले समय काटने की आदत पड़ गयी है। लेकिन जब आपकी बच्ची को खेलते देखता हूँ तो अपने को रोक नहीं पाता।”

“ये आपको परेशान करती होगी ?” जया ने आरना का सिर सहलाते हुए पूछा।

“अरे नहीं बेटी, इसके साथ खेलने से मेरे घुटने दुरुस्त हो गए।”

शिवाकांत जी के मुख से 'बेटी' शब्द सुनकर जया जैसे अपनेपन के भाव से भर उठी. उसने झुक कर उनका चरण स्पर्श कर लिया।

शिवाकांत जी की आँखों से वात्सल्य छलक उठा. उन्होंने उसके सिर पर हाथ रख दिया।

शनिवार, 17 सितंबर 2016

रौनक : लघुकथा

“शाल, नी कैप, बाम, हेल्थ ड्रिंक्स, बिस्किट्स ये सब चीज़ें तो दिल्ली में भी मिलती हैं। फिर यहाँ से लाद कर ले जाने की क्या ज़रूरत है ?” स्नेहा को चीज़ें बैग में डालते देख शिखर ने पूछा।

“मिलती हैं, लेकिन ऑफिस में काम के बाद मैं ये सब चीज़ें खरीदने लगूँगी तो आधा दिन बर्बाद हो जाएगा। बहुत दिनों बाद माँ से मिल रही हूँ। इसलिए मैं चाहती हूँ कि कम से कम आधा दिन तो उनके साथ गुज़ारूँ, न कि शॉपिंग करते हुए।“

“तो ऑनलाइन ही भेज देतीं।” शिखर ने तर्क दिया।

“ हाँ, भेज सकती थी श्रीमान शिखर जी। और पिछली बार भेजी भी थीं। लेकिन सारे ड्रिंक्स पड़े-पड़े एक्सपायर हो गए थे। माँ ने उनके पैक भी नहीं खोले थे।”

“हो सकता है माँ को उसका फ़्लेवर ना पसंद आया हो।”

“अच्छा, लेकिन पिछली बार जो मैंने बाज़ार से लाकर दिया था, सेम फ़्लेवर। उसे तो माँ ने तुरंत खोल कर पिया था।”

“ऐसा क्यों ?” शिखर ने पूछा।

“ऐसा इसलिए कि ये सारी चीज़ें देखने में भले ही मामूली हों लेकिन इनके साथ जुड़े प्यार के एहसास ऑनलाइन नहीं मिलते।” स्नेहा ने शिखर की नाक पकड़कर हिलाते हुए जवाब दिया।

“ओके ओके, योर हाइनेस।” कहते हुए शिखर ने सिर से कैप उतार कर झुकने का अभिनय किया। फिर दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े।

स्नेहा ने माँ को फ़ोन पर बताया कि वह दो दिन के लिए दिल्ली आ रही है। खबर सुनते ही घुटने पकड़ कर चलने वाली आशा के शरीर में बिजली की सी स्फूर्ति आ गई।

“सुन रज्जो, स्नेहा का कमरा ठीक कर देना। वह दो दिन के लिए आ रही है।” आशा ने काम करने वाली को निर्देश दिया।

“जी मेम साब।”

“और सुन साब आएँ तो उन्हें चाय पिला देना। मैं सुपरमार्केट जा रही हूँ।” कहकर आशा सुपर मार्केट चली गईं।

काउन्टर पर बिल चुका वे जैसे ही मुड़ीं तो सामने उनकी सहकर्मी शीला मिल गईं।

“अरे, आप यहाँ?” शीला ने आश्चर्य प्रकट किया।

“हाँ कुछ सामान लेना था।” आशा ने जवाब दिया।

“कोई आने वाला है क्या ?” शीला जी ने पूछा।

“हाँ, हमारे घर की रौनक आने वाली है।”

“अच्छा तो बिटिया आ रही है !”

“हां शीला, हमारी बहूरानी स्नेहा आ रही हैं।” कहते हुए आशा का चेहरा ख़ुशी से चमक उठा।

('साहित्य अमृत' 2017 के लघुकथा विशेषांक में प्रकाशित)

(चित्र गूगल साभार )


सोमवार, 12 सितंबर 2016

एस्सी : लघुकथा

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पंडित बब्भन शास्त्री और सेठ सूदामल अपने परिवार के साथ शिमला जा रहे थे। वे जैसे ही प्‍लेटफार्म पर दाखिल हुए। इंजन ने सीटी दे दी। ट्रेन आहिस्ता-आहिस्ता रेंगने लगी। सामने जनरल डिब्बा था, जिसमें मज़दूर रैली का बैनर लगा था।

गिरते-पड़ते दोनों परिवार उसी में चढ़ गए। डब्बा खचाखच भरा था। अंदर कदम रखते ही पसीने के भभके ने उनका स्वागत किया। ट्रेन रफ़्तार पकड़ चुकी थी। वे कातर निगाहों से जगह के लिए सवारियों का मुँह ताकने लगे। थोड़ी देर बाद उनकी पत्नियों को बैठने की जगह मिल गई। दोनों के बच्चों को ऊपर की बर्थ पर बैठा दिया। वहाँ दो बच्चे पहले से बैठे थे। शास्त्री और सेठ पसीना पोंछते किनारे खड़े हो लिए। दोनों की पत्नियाँ नाक पर रुमाल लगाए आपस में भुनभुनाने लगीं।

“मईनो पल्ले एसी में रिजर्वेशन करवायो, फायदा को नी।” सेठ की पत्नी भन्नाई।

“वई तो, मैं बोली कि गाड़ी का टेम हो गया, लेकिन शास्त्री जी बोले कि निकलने का टेम अभी नहीं आया।” शास्त्री की पत्नी ने उलाहना दिया।

“मआम्मी, एसी क्यों नई चल्ला ?” सेठ का बच्चा कुनमुनाया।

“बेटा, अगले टेस्सन पर एसी में चलांगे।”

“माम्मी, पानी चाइए !” अब शास्त्री का बच्चा कसमसाया।

“बेटा, स्टेसन आन दो, फिर एसी में चलेंगे वहां पानी पीना। अभी अपनी चाकलेट खाओ।” शास्त्री की पत्नी ने फुसलाया।

“नोय...अब्बी पानी चईये !” बच्चा ठुनकने लगा।

“भेनजी, बच्चे को पानी पिला दो।” एक औरत अपनी पानी की बोतल बढ़ाते हुए बोली।

“ना, हम ये पानी नहीं पीते।”

“भेनजी, ये बीसलरी है, देखिये अभी तक खोला भी नहीं।”

“वो तो ठीक है लेकिन हम थोड़ा धरम-करम वाले हैं।” बीच में शास्त्री बोल पड़ा।
“साब जी, एत्ती देर से आप लोग एससी-एससी का गुणगान कर रहे हो। फिर बच्चे को एक एससी आदमी का पानी पीने से क्यों रोकते हो ?” एक मजदूर यात्री ने चुटकी ली।

“देख भाई, तू अपनी सीख अपने पास रख।'' सेठ ने शास्त्री की बात का समर्थन किया।

ऊपर बैठे बच्चे इन सब बातों से बेखबर थे। एक बच्चा शास्त्री के बच्चे को बोतल से पानी पिला रहा था। सेठ का बच्चा दूसरे बच्चे को अपनी चॉकलेट खिला रहा था। और खुद उसकी गुड़पट्टी मुँह में दबाए आनंद से सिर हिला रहा था। अपने अंदर सबको समेटे ट्रेन रफ़्तार में चली जा रही थी।

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(चित्र गूगल साभार)


बुधवार, 7 सितंबर 2016

मोनालिसा : लघुकथा

फ़ोटोग्राफ़ी और कहानी लिखना सोनाक्षी का सबसे पसंदीदा शौक था। यह शौक उसकी रोजी-रोटी का सहारा भी था। सोनाक्षी जब भी अपनी एक्टिवा पर निकलती तो उसकी निगाहें सड़कों पर कुछ तलाशती चलतीं। शायद कोई कहानी। कोई ऐसी कहानी, जो मास्टरपीस बन जाए। मोनालिसा की तरह।

कल भी वह इसी धुन में चली जा रही थी। दोपहर का समय था। ओवर ब्रिज के नीचे लगे नल पर कुछ बच्चे नहा रहे थे। उनकी किलकारियों ने सोनाक्षी का ध्यान आकर्षित किया। उसने अपनी एक्टिवा रोक दी। वह उनकी जल क्रीड़ाओं का आनंद लेने लगी। फिर बैग से कैमरा निकालकर वह उस दृश्य को शूट करने लगी।
शूट करते हुए उसकी नज़र एक लड़की पर पड़ी। वह बच्चों के हाथ-पैर झाँवे से रगड़ रही थी। उसके कपड़े पानी से सराबोर थे और बदन पर चिपके जा रहे थे। उसके साँवले चेहरे पर भीगी लटें बहुत मोहक लग रही थीं। वह हाथों से बार-बार उन्हें पीछे कर देती थी। सोनाक्षी ने लेंस का फ़ोकस ज़ूम कर दिया। अब लड़की के हाव-भाव कैमरे में शूट होने लगे।

फ़िल्म शूट करने की धुन में सोनाक्षी उनके निकट पहुँच गई थी। अचानक लड़की की निगाह सोनाक्षी पर पड़ी। वह थोड़ी असहज हो उठी।

सोनाक्षी ने अचकचाकर कैमरा हटा लिया।

“मोना दीदी ! जल्दी आवो न... !” तभी ओवर ब्रिज के नीचे से किसी बच्‍चे ने पुकार लगाई।

“आ.... रहे हैं !’’ लड़की ने जवाब दिया। और बच्चों को साथ लेकर वह ओवर ब्रिज के नीचे बनी झोपड़ियों की ओर चल दी।

थोड़ी देर सोनाक्षी उसे जाता हुआ देखती रही। प‍हले उसने सोचा उसके पीछे जाए, फिर कुछ देर पहले की घटना को याद कर एक अजीब से अपराधबोध से भर उठी।
हौले-हौले वह अपनी एक्टिवा की ओर बढ़ी और वापस चली गई।

सोनाक्षी पूरे समय उस लड़की के बारे में, उसकी असहजता के बारे में ही सोचती रही। रात भी उसने करवट बदलते काटी। जब उसने मन ही मन तय किया कि कल जाकर वह उस लड़की से माफी माँगेगी, तभी उसे नींद आई। आज दोपहर होते-होते वह फिर से ओवर ब्रिज के नीचे थी।

उसने देखा दस-बारह बच्चे ज़मीन पर बैठकर अपनी-अपनी कॉपी में कुछ लिख रहे थे। एक लड़की ओवर ब्रिज के पिलर पर कुछ लिख रही थी। जब वह पलटी तो उसका चेहरा देखकर सोनाक्षी के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। यह तो वही लड़की है जो कल बच्चों को नहला रही थी।
“तुम...!”

“हाँ, हम।“ सोनाक्षी की बात पूरी होने से पहले लड़की ने जवाब दिया।

“यह सब... ?” सोनाक्षी ने आश्चर्य प्रकट किया।

“हमारे बाबा सब्जी बेचते थे और हमें स्कूल भेजते थे। बीमारी ने उनकी जान ले ली। उस समय हम आठ में पढ़ते थे। हमारी पढ़ाई छूट गई।“

“और माँ ?”

“वो भी सब्जी बेचती हैं, लेकिन आजकल बीमार हैं।”

“ ओह, तो फिर... ?”

“दीदी, हम एक स्कूल में नर्सरी के बच्चों की कॉपी पर होमवर्क देने का काम करते हैं, और...।“

“और फिर इन बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो।” सोनाक्षी ने मुस्कुराते हुए उसकी बात पूरी की।

“न ना...ट्यूशन नहीं, इनको पढ़ना-लिखना सिखाती हूँ बस यूँ ही।’’ कहते हुए वह लड़की मुस्कुरा दी। उसके चेहरे पर आत्मविश्वास की चमक थी।

आदतन सोनाक्षी का हाथ अपने कैमरे पर चला गया।
“रुको..., एक फ़ोटो बच्चों को पढ़ाते हुए।” कहकर वह खिलखिला पड़ी।

सोनाक्षी ने उसकी फुलझड़ी जैसी खिलखिलाहट को झट से अपने कैमरे में कैद कर लिया।

सोनाक्षी आज सचमुच बहुत ख़ुश थी। उसे मोनालिसा जो मिल गई थी।

सोमवार, 8 अगस्त 2016

फ्रंट पेज : लघुकथा

इधर तीन-चार रोज़ से अखबार का फ्रंट पेज गायब रहता था। समझ नहीं आ रहा था कि आखिर माज़रा क्या है ? इत्तेफ़ाक से अखबारवाला बिल लेकर आ गया। उसे देखते ही मेरा पारा हाई हो गया।

“क्या बात है, तीन-चार रोज़ से तुम आधा अखबार डाल रहे हो?” मैने उसे हड़काया।

“आधा अखबार ! ऐसा कैसे हो सकता है बाबूजी !”

“लेकिन हो तो यही रहा है ! बिना फ्रंट पेज के अखबार डाल रहे हो!” मैं झल्लाया।

“लेकिन बाबूजी, मैं बिना फ्रंट पेज के अखबार क्यों डालूँगा?”

मैंने उसे चेतावनी देते हुए कहा, “देखो, अगर कल पूरा अखबार नहीं डाला तो मैं किसी और को लगा लूँगा !”

दूसरे दिन फिर वही हुआ। मैंने तुरंत निर्णय लिया कि कल इसकी छुट्टी कर किसी दूसरे अखबारवाले को लगा लूँगा।

मैं भोर में ही उठकर बरामदे में बैठ गया, ताकि किसी नए अखबार वाले को तलाशा जा सके। थोड़ी देर बाद गेट खोलकर बाहर आ गया। सड़क पर सन्नाटा पसरा था। मैं चहलकदमी करते हुए नुक्कड़ तक जाकर वापस लौटने लगा। दूर से देखा एक छोटा बच्‍चा मेरे घर का गेट खोल अंदर दाखिल हो रहा है।

“ये बच्चा इतनी सुबह यहाँ क्या कर रहा है? ” मैंने अपने कदम तेज कर लिए।

मैं गेट के पास पहुँचा। देखा वह बच्चा अखबार उठा कर उसकी तह निकाल रहा है। मैंने बच्चे का कन्धा पकड़ कर अपनी ओर घुमाया। वह एक छोटी बच्ची थी। मुझे उसका चेहरा जाना पहचाना सा लगा।

मैंने उससे थोड़ा सख्त अंदाज़ में पूछा, “तो तुम रोज़ अखबार का पेज निकाल लेती हो, क्‍यों ?”

पहले तो वह सकपकाई फिर बिना डरे बोली, “मेरी दोस्त सोनम है ना, उसके लिए।”
“क्यों ?”
“क्योंकि सोनम स्‍कूल नहीं जाती।”
“क्यों नहीं जाती ?”
“क्‍योंकि उसके पास स्कूल की ड्रेस नहीं है।“
“तो अखबार ले जाकर क्या करती हो ?”
“सोनम की मम्मी अखबार से लिफाफे बनाती हैं। वो खूब सारे लिफाफे बना लेंगी तो सोनम की ड्रेस आ जाएगी।”
“ह्म्म्म, तो ये बात है।”
“हूँम्म।” उसने सिर हिलाते हुए हामी भरी।
मुझे उसकी बात दिलचस्प लगी।
“तो फिर तुम अखबार का बाक़ी हिस्सा क्यों छोड़ देती हो?”

मेरे प्रश्न को सुनकर वह मेरी ओर देखने लगी। वह चुप थी। शायद उसे कोई जवाब नहीं सूझ रहा था। उसके बालमन में क्या था, नहीं पता। लेकिन आज इस वाकये ने मुझे सोच में डाल दिया है और मैं अब भी उसी में उलझा हुआ हूँ।

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(चित्र गूगल से साभार)

रविवार, 17 जुलाई 2016

खुली आँखों से : लघुकथा

उत्तर पुस्तिका में अंग्रेज़ी के कम अंक देखकर रत्ना परेशान हो उठी थी। उसने रोहन की अंग्रेज़ी सुधारने के लिए क्या कुछ नहीं किया। दो-दो ट्यूशन। यहाँ तक कि घर में अंग्रेज़ी का माहौल बना रहे इसलिए उसने हिंदी बोलने, पढ़ने और टीवी पर हिंदी कार्यक्रम देखने पर भी कर्फ्यू लगा रखा था।

आज वार्षिक परीक्षा का रिपोर्टकार्ड मिलना था। वह पति के साथ भारी क़दमों से विद्यालय के ऑडिटोरियम में दाखिल हुई। उसने देखा तमाम अभिभावकों के चेहरे खिले हुए थे।

“काश ! रोहन के भी अंग्रेज़ी में अच्छे अंक आये होते तो हम भी इसी तरह से ख़ुश होते।” रत्ना ने फुसफुसा कर पति से कहा।

“ह्म्म्म '' पति ने मोबाईल पर उंगलियाँ फिराते हुए हामी भरी।

रोहन बगल में सिमटा बैठा था। शायद वह माँ की मनःस्थिति भांप गया था। इसलिए सिर झुकाए कनखियों से अपने साथियों को इधर-उधर भागते देख लेता था। उनके साथ जाकर खेलने की हिम्मत वह नहीं जुटा पा रहा था।

समारोह आरम्भ हुआ। सबसे पहले प्रथम, द्वितीय, तृतीय आये विद्यार्थियों को पुरस्कृत किया गया। उसके बाद विभिन्न विषयों में विशिष्ट योग्यता वाले विद्यार्थियों को पुरस्कृत किया जाने लगा।
मंच पर नाम पुकारने का सिलसिला चल रहा था।

“अब एक नाम। जिसने प्रदेश स्‍तरीय हिन्दी कहानी लेखन और चित्र प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त करके न केवल विद्यालय का, बल्कि हमारे शहर का भी नाम रोशन किया है।”

पूरा ऑडिटोरियम तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।

“वह नाम है, हर्ष कपूर !”

नाम सुनते ही रत्ना के बगल में बैठे अभिभावक ख़ुशी से उछल पड़े। हर्ष उन्हीं का बेटा था। माँ ने बेटे का माथा चूमा,पिता ने पीठ थपथपाई और पुरस्कार लेने के लिए मंच पर भेज दिया।

रत्ना ने धीरे से उनसे पूछा, ''हर्ष की इंग्लिश कैसी है ?”

“अच्छी है।” हर्ष की माँ ने जवाब दिया।

“उसके मार्क्स...आई मीन अच्छे ही होंगे ?” रत्ना ने थोड़ा झिझकते हुए पूछा।

“उम्म, एवरेज हैं, लेकिन हिंदी और आर्ट में फ़ुल आये हैं।” उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा।

“आप इससे सेटिसफाइड हैं ! जबकि ज़माना इंग्लिश का है !” रत्ना ने आश्चर्य व्यक्त किया।

“बिल्कुल, आख़िर इसमें बच्चे का इन्ट्रेस्ट है, हुनर है।” इस बार हर्ष की माँ ने रत्ना की ओर देखते हुए बड़े सहज भाव से जवाब दिया।

“इन्ट्रेस्ट तो रोहन का भी हिंदी राइटिंग में है, लेकिन हमने ही...।” कहते हुए रत्ना की ज़बान बीच में ही लड़खड़ा गई। वह अपराधी सी पति की ओर देखने लगी।

तभी मंच से प्रस्तुत कर्ता की आवाज़ गूँजी।

“और विद्यालय के ही एक और होनहार छात्र ने इसी प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार जीता है!...वह है रोहन कुमार !”

नाम सुनते ही रत्ना सन्न रह गई। उसे अपने कानों पर विश्‍वास नहीं हो रहा था। अनचित्ते ही उसने रोहन को खींचकर सीने से लगा लिया।

रत्ना की आँखें बरबस छलक आईं। उसने मिसेज़ कपूर की ओर देखा, पर कुछ बोल नहीं पाई। मिसेज कपूर ने मन की बात समझते हुए रत्ना का हाथ अपने हाथ में ले लिया।

तालियों की गड़गड़ाहट फिर गूँज उठी।

मंगलवार, 28 जून 2016

भूख का ईमान

चिलचिलाती धूप। पारा सैंतालिस पार कर चुका था। लगभग नौ-दस साल का एक लड़का थर्मोकोल के बक्से में पानी की थैलियाँ रखकर बेच रहा था। जब भी कोई ऑटो या बस बाईपास पर रूकती तो वह हाथों में थैलियाँ लिए ‘पानी ! पानी !’ की आवाज़ लगाता हुआ उनकी ओर दौड़ पड़ता। लोग पानी की थैलियों के बदले उसकी हथेली पर सिक्का रख देते। वह चहकता हुआ उन सिक्कों को एक डिब्बे में डाल देता। उस समय उसके चेहरे पर अपार संतोष दिखाई देता।

पास में एक छोटा सा मन्दिर था। जहाँ भिखारियों और साधुओं का मजमा लगा था। कुछ लोग उन्‍हें भोजन के पैकेट बाँट रहे थे। कुछ ऑटोवाले, रिक्शेवाले भी उन पैकेटों को लेने के लिए खड़े थे। एक रिक्शेवाला लड़के के पास बैठकर पैकेट से पूरियाँ निकाल कर खा रहा था। वातावरण में ताज़ी पूरियों की सुगंध फैल गई थी। लड़का रिक्शेवाले को एक टक देखे जा रहा था।

“जा के तुमहू लय लेव पाकिट !” रिक्शेवाले ने उसे घुड़का।

“नाह ! अम्मा घरे से रोटी लय के आवत होइहै।” लड़के ने इन्कार करते हुए बताया।

“ढेर सेखी न बघार, अबहिये चुक जाई त मुँह तकिहौ !” रिक्शेवाले ने चेताया।

लड़का उसको अनसुना कर सड़क से नीचे जाती पगडण्डी की ओर उचक-उचक कर देखने लगा। शायद माँ की राह देख रहा था। लेकिन ऐसा लग रहा था कि उससे अब भूख बर्दाश्त नहीं हो रही है। वह रह-रह कर सूखे होठों पर अपनी ज़ुबान फेर लेता था।

तभी एक व्यक्ति पैकेट बाँटते-बाँटते उस लड़के के पास आ गया। उसने लड़के की ओर पैकेट बढ़ाते हुए कहा, “लो बेटा !” बच्चे ने एक क्षण उस पैकेट को देखा। फिर धीरे से इन्कार में सिर हिला दिया।

“ले लो बच्चे, सबने लिया, तुम भी ले लो !” उस व्यक्ति ने प्यार से कहा। पैकेट से आती खाने की सुगंध और भूख से कुलबुलाती आँतों के आगे लड़के ने आखिरकार हार मान ली। लड़के ने हिचकते हुए पैकेट थाम लिया।

वह व्यक्ति लड़के को पैकेट थमा कर धीरे-धीरे अपनी कार की ओर वापस लौट रहा था। लड़के की निगाह उसके पीछे ही लगी थी। अचानक उसने पीछे से पुकारा, “बाउजी !” और बिजली की गति से नीचे झुका। व्‍यक्ति ने देखा थर्मोकोल के बक्से से पानी की दो थैलियाँ निकाल कर लड़का उसकी ओर दौड़ा आ रहा है।



रविवार, 19 जून 2016

कन्धों पर सपने और जोड़-तोड़ के कुछ किस्से, किस्से हर पिता के

उस दिन आँगन में किलकारी गूँजते ही तुम्हें अपने विशाल कन्धों का पहली बार एहसास हुआ था। जब तुमने एक कपड़े में लिपटे नन्हे धड़कते दिल को अपने सीने से पहली बार लगाया था। बरबस ही उसका माथा चूमते हुए तुमने उससे दुनिया की हर ख़ुशी देने का वादा किया था।

शाम को काम से लौटते समय प्यास से हलकान गले को तर करना चाहते थे। लेकिन उस खिलौने की दूकान की तरफ़ तुम्हारे कदम बढ़ गए। जिसे बचपन में कई बार दूर से देखा था तुमने। लेकिन उनको पाना शायद सपनों में ही हुआ था। वो लाल रंग की मोटर, ताली बजाने वाला गुड्डा और ना जाने कितने सपने। लेकिन आज तुम उन सपनों को साकार करना चाहते थे। तुमने अपनी जेब टटोली फिर मुस्कुराते हुए बढ़ गए उन सपनों को लेने।

एक हाथ में बैग और दूसरे हाथ में थैला पकड़े पसीने से लथपथ थे। रिक्शे वाले ने सामने से आवाज़ दी, “कहाँ चलना है बाबूजी !” तुम उसपर बैठना चाहते थे लेकिन तुम्हारी निगाह छोटी साईकिल की दुकान पर पड़ी। तुमने मुस्कुराकर रिक्शेवाले को मना कर दिया। क्योंकि अभी और जोड़ने थे कुछ पैसे उस छोटी साईकिल के सपने को सच करने के लिए।

चलते-चलते कई बार तुम्हारी सैंडल का पट्टा उखड़ जाता था। तुम हर बार उसपर एक कील ठुकवा लेते थे। तुम्हारी सैंडल पर कीलों और सिलाइयों की संख्या बढ़ती जा रही थी। लेकिन तुम खुश थे। आज तुमने अपने बगल में पकड़ रखी थी एक छोटी सी लाल साईकिल और नन्हें स्पोर्ट्स शूज़।

दर्जी से अपनी शर्ट का घिसा कॉलर पलटवा लिया था। स्वेटर की उधड़ी बुनाई ठीक करवा ली थी। तुम बहुत खुश थे क्योंकि तुमने समय से भर दी थी उस स्कूल की फ़ीस। जिसको तुमने बचपन में कई बार बाहर से देखा था। लेकिन अंदर जाना एक सपना था।

तुमने कुछ बहाना बनाकर बंद करवा दिया था रात का दूध। जिसको पिए बिना तुम सो नहीं पाते थे। लेकिन उसके बाद तुम्हारी नींद पहले से और गहरी हो गई थी। क्योंकि तुमने हॉस्टल और कॉलेज के चार्जेज़ का आख़िरी इंस्टालमेंट भर दिया था।

आज तुमको अपने कंधे कुछ हलके लग रहे होंगे। क्योंकि आज तुम महसूस कर रहे हो अपने अंदर के पिता को, अपने पिता को। लेकिन अभी भी तुम सोते-सोते चौंक कर उठ जाते हो। फिर सोचने लगते हो कि कोई ख़ुशी बाकी तो नहीं रह गई। जो उस नन्हें धड़कते दिल को चाहिए।

चित्र गूगल से साभार 

शुक्रवार, 10 जून 2016

सज़ा :लघुकथा

विद्यालय में वार्षिक परीक्षाएँ चल रहीं थीं। मैं स्टाफ़ रूम में उत्तर पुस्तिकायें जाँच रही थी। कुछ समय बाद पास के कक्ष से सहकर्मी सुमन की ज़ोर-ज़ोर से बोलने की आवाज़ आयी। मै सुनने की कोशिश करने लगी किन्तु कुछ स्पष्ट नहीं हुआ। मैं स्टाफ़ रूम से बाहर आ गई। मैंने देखा कि सुमन एक बच्चे का हाथ पकड़ कर लगभग खींचते हुए प्रधानाचार्य के कार्यालय की ओर जा रही थी। वह बच्चा रोते हुए कुछ कह रहा था। मैने परीक्षा कक्ष में ड्यूटी कर रही एक अन्‍य अध्यापिका से पूछा, “क्या हुआ सीमा ?”

“अरे, वह बच्चा नोटबुक लेकर नक़ल कर रहा था।” मैं थोड़ा परेशान हो उठी। अचानक मेरे कदम प्रधानाचार्य के कार्यालय की ओर बढ़ने लगे। साँसों की रफ़्तार तेज़ होने लगी थी। पचास मीटर का फ़ासला पचास किलोमीटर लगने लगा था।

मस्तिष्क में, कक्षा छह की वार्षिक परीक्षा की घटना चलचित्र की भांति चलने लगी। विज्ञान की परीक्षा थी। मुझे एक चित्र के भागों के नाम नहीं याद हुए थे। मैंने नक़ल के इरादे से अपनी नोट बुक डेस्‍क में रख ली थी। लेकिन उसे देखने की हिम्मत नहीं हुई। मुझे जो आता था, उसके आधार पर ही प्रश्‍नपत्र हल करती रही। लेकिन किसी लड़की ने नोटबुक रखते देख लिया था। उसने अध्यापिका से शिकायत कर दी। अध्यापिका ने मेरी उत्तर पुस्तिका छीन ली। मुझे सबके सामने बहुत अपमानित किया। मैं चुप थी। क्योंकि खुद को निर्दोष साबित करने का मेरे पास कोई प्रमाण नहीं था। उस अपमान ने मुझे बुरी तरह झिंझोड़ दिया था। उससे उबरने में मुझे खासा समय लगा था।

“क्या एक छोटी सी ग़लती की सज़ा ऐसी होनी चाहिए जिससे किसी का आत्मविश्वास ही खो जाये। नहीं, अब मैं ऐसा नहीं होने दूँगी !” मैं लगभग चीख़ उठी।

मैं बिना इजाज़त लिए प्रधानाचार्य के कक्ष के भीतर चली गई। मैंने देखा प्रधानाचार्य उस बच्चे को अपनी बांहों में लेकर बड़े प्यार से समझा रहे थे, “बेटा आपको जो भी, जैसा भी याद आये आप अपनी उत्तर पुस्तिका में लिख दीजिये। हमें वही उत्तर चाहिए जो आप लिखेंगे।''

बच्चे ने हामीं में सिर हिला दिया।

उसकी ही नहीं, मेरी पलकें भी अभी नम थीं, लेकिन हम दोनों के होठों पर मुस्कान खिल आई थी।




रविवार, 29 मई 2016

एक पाती विद्यार्थियों के नाम


प्यारे बच्चों,


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ये पत्र उन सभी बच्चों के नाम है जो मेरे विद्यार्थी हैं और रहे हैं। ये पत्र उन बच्चों के भी नाम है, जिन्होंने मुझसे पढ़ा तो नहीं किन्तु वे किसी न किसी विद्यालय के विद्यार्थी हैं।


बोर्ड के परीक्षा परिणाम घोषित किये जा रहे हैं। कुछ के घोषित हो गए हैं और कुछ के अभी होने बाक़ी हैं। सबसे पहले जो बच्चे परीक्षा में सम्मिलित हुए उन सभी को ढेर सारी शुभकामनाएँ।


शुभकामनाएँ इसलिए क्योंकि मेरा मानना है कि किसी भी परीक्षा में सम्मिलित होना भी अपने आप में एक तरह का सीखना है। कुछ भी अच्छा सीखना अच्छी बात होती है। और हर अच्छी बात के लिए शुभकामनाएँ तो दी ही जाती हैं ना।


परीक्षा का फ़ार्म भरने से लेकर परीक्षा कक्ष में बैठकर परीक्षा देने तक अनेकों बातें सीखने को मिलती हैं। तुमने महसूस किया होगा कि जितनी भी बातें परीक्षा देने के दौरान सीखीं उनमें से कोई भी बात, न किसी कक्षा में बताई गई और न ही किसी पुस्तक में पढ़ाई गई। वहाँ जो कुछ भी तुमने सीखा अपने अनुभवों से सीखा।


वास्तव में इन्हीं अनुभवों द्वारा सीखने को ही वास्तविक ज्ञान कहते हैं। मैं ये नहीं कह रही कि विद्यालयों मे दी जाने वाली शिक्षाओं से ज्ञान प्राप्त नहीं होता। वहाँ से भी ज्ञान प्राप्त होता है लेकिन सम्पूर्ण नहीं। जो शिक्षा तुम विद्यालय में प्राप्त कर रहे हो वो औपचारिक शिक्षा है। वहाँ किसी विषय विशेष की ही शिक्षा प्राप्त की जा सकती है जिसका जीवन में योगदान मात्र बीस प्रतिशत (20%) बल्कि उससे भी कम ही है। बाक़ी की अस्सी प्रतिशत (80%) शिक्षा हम अपने रोज़ाना के अनुभवों से प्राप्त करते हैं।


याद रखो, यही अस्सी प्रतिशत वाली शिक्षा सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, जो जीवन में सबसे अधिक काम आती है। जिसके लिए न किसी विद्यालय में जाना होता है, न कोई पुस्तक पढ़नी होती है और न ही इसका कोई परीक्षा परिणाम घोषित होता है।


तो बच्चों, जब वो 80% वाली शिक्षा, जिसका हमारे जीवन में सबसे अधिक महत्व है उसे पाकर ख़ुश होना चाहिए ना। बाक़ी की 20% प्रतिशत वाली शिक्षा के परीक्षा परिणाम चाहे जो भी आये, उसके लिए निराश क्यों होना। अंक कम हों या अधिक कुछ समय बाद याद भी नहीं रहते। वे केवल रिपोर्ट कार्ड में ही चिपके रह जाते हैं। इनका जीवन में कोई महत्व नहीं।


मैं स्वयं जो भी हूँ अपने अनुभव और प्रयास से हूँ न कि विद्यालयी शिक्षा से। तुम्हें बताऊं कक्षा 3 के बाद मेरे कभी अच्छे अंक नहीं आये। रिपोर्ट कार्ड लाल निशानों से भरा रहता था। 12 वीं और ग्रेजुएशन में एक-एक बार असफल भी रही। लेकिन इन सबके बावजूद जो भी हूँ तुमने मुझसे पढ़ते हुए देखा-सुना ही है।

बच्चों, याद रखो, महत्व उस शिक्षा का है जिसे तुम अपने अनुभव से प्राप्त कर रहे हो और जीवन भर करते ही रहोगे, बिना विद्यालय, बिना परीक्षा, जिसमें सफलता मिलनी ही मिलनी है। यही ज्ञान तुम्हारी पहचान बनेंगा। जो अनोखी होगी। सबसे अलग।


हुनर है तुममें एक अलग सूरज बनने का, जो उगता है पर कभी अस्त नहीं होता।


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सस्नेह, शिक्षिका के रूप में, हमेशा एक दोस्त, अर्चना।



बुधवार, 3 फ़रवरी 2016

पारुल :लघुकथा

अक्सर सुबह-सुबह नन्हीं पारुल, अपनी बहन पिंकी के साथ आ जाती। पिंकी बर्तन धोती, झाड़ू-पोछा करती। पारुल मुझसे बतियाती। कभी कॉलोनी के किस्से तो कभी अपने भाई-बहनों की बातें। सात-आठ साल की उम्र और दुनियादारी की बातें, जैसे दादी-अम्मा हो। एक लगाव सा हो गया था उससे।

पिंकी को बेटी हुई तो उसने दो महीने की छुट्टी ले ली। अब पारुल भी नहीं आती थी। सुबह-सवेरे उसकी भोली बातें सुनने की आदत सी हो गई थी। अब सूना-सूना सा लगता था। एक सुबह पारुल अपनी माँ के साथ गेट पर खड़ी थी। मैंने जल्दी से गेट खोला और प्यार से पूछा, “पारुल, दीदी नहीं आती तो तुमने भी आना बंद कर दिया, क्यों !” वह मुस्कुरा कर अपनी माँ की ओर देखने लगी।

“बिटिया, जबलेक पिंकी न अइहे तबलेक पारुल के काम पे धई लेव।” गेट पर खड़े-खड़े ही पारुल की माँ बोली।

“पारुल को काम पर रख लूँ ! ये तो बहुत छोटी है !” मैंने पारुल की ओर देखते हुए कहा।

“अरे बिटिया, ई कुल काम कई लेत है, एतनी छोट नाही बा।”

“नहीं, मैं इतनी छोटी बच्ची से काम नहीं करवाउँगी !”

“बिटिया, पेटे के आग छोट बड़ नाई देखत। तू काम न करवईहो तो कहूँ और करे के परी, लड़की जात कहूँ कुछ ऊँच-नीच होई जाय तो...।” कहते हुए वह चली गई और पीछे-पीछे पारुल भी।

अपने रोजमर्रा के काम निपटाकर मैं ऑफिस चली गई। सारे दिन मन खिन्न सा रहा। रह-रहकर पारुल का चेहरा और उसकी माँ की बात दिमाग में घूमती रही। शाम को घर वापसी के लिए मैं बस में बैठी। खिड़की से सिर टिकाकर आँखें बंद कर लीं। चौराहे पर सिग्नल पर बस रुकी तो मेरी आँख खुल गई।

शोर से ध्यान पास के पार्क की ओर चला गया। उसके बाहर भीड़ जमा थी। मैंने गर्दन उचकाकर बाहर झाँका। दृश्‍य देखकर मेरा माथा घूम गया। सामने दो बाँसों के बीच बंधी रस्सी पर हाथ में डंडा लिए पारुल खड़ी थी। “पाss रुss लss !” मेरी चीख निकल गई। मैं हड़बड़ाकर बस के गेट पर आ गई। वहाँ से उसका चेहरा साफ दिख रहा था। पर वह पारुल नहीं कोई और बच्ची थी।

मेरा सारा शरीर पसीने से नहा गया था। दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। बस चल पड़ी थी। मैंने लंबी साँस ली। मैंने फैसला किया कि पारुल को काम पर रख लूँगी। भले ही मैं उससे काम न करवाऊँ। दो महीने की ही तो बात है।
मन कुछ शांत हुआ। लेकिन अब उस रस्सी पर चढ़ी बच्ची का चेहरा आँखों में नाचने लगा। 
जैसे वह पूछ रही हो, “पारुल तो सुरक्षित हो गई लेकिन मैं.....?”