बरषा बिगत सरद रितु आई। लछमन देखहु परम सुहाई॥
फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥
हे लक्ष्मण ! देखो, वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद् ऋतु आ गई । फूले हुए कास से सारी पृथ्वी छा गई। मानो वर्षा ऋतु ने कास रूपी सफेद बालों के रूप में अपना बुढ़ापा प्रकट किया है।
वर्षा ऋतु बीत गई और अब क्वार-कार्तिक त्यौहारों और उत्सवों के गुच्छों के महीने हैं । गणेशोत्सव, नवरात्रि , दशहरा , दीपावली, छठ आदि आदि । इन त्यौहारों के बीच न जाने कितने छोटे-छोटे त्यौहार आते हैं। अच्छा लगता है इस मौसम में जब गर्मी धीरे-धीरे रुखसत होने को होती है और शरद ऋतु अपना आँचल फैलाने लगती है गुलाबी ठंडक में इन त्यौहारों का आनंद दोगुना हो जाता है।
ये त्यौहार भारतीय सभ्यता और संस्कृति के परिचायक तो हैं ही साथ में ये त्यौहार कोई न कोई प्रेरणा या संदेश देते हैं । प्रत्येक त्यौहारों की अपनी-अपनी कहानी है और उनको मनाने के अपने-अपने विधान हैं। गणेशोत्सव और नवरात्री में बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ स्थापित करना उनपर फूल-माला , चढ़ावा आदि चढ़ाना, बड़े-बड़े पूजा पंडालों की सजावट और फिर सब कुछ ले जाकर नदियों में प्रवाहित करना |
मुझे ये बड़ी अजीब सी बात लगती है कि जहाँ हम इन नदियों को इतना पूजते हैं वहीँ सारा कूड़ा कचरा इनके हवाले कर के पाप मुक्त हो जाना चाहते हैं। भला ये कहाँ का धर्मं है ? त्यौहार बीतने पर पूजा पंडालों के पास की गंदगी, कूड़े-कचरे के ढेर हमारी सभ्यता और संस्कृति को कितने चार चाँद लगाते हैं ये सोचने वाली बात है । हमारी आदत बन गई है सरकार को कोसने की । क्या हमारा कर्तव्य नहीं कि हम भी सफाई का ध्यान दें ?
दूसरी चीज़ और देखने में आई है वह है लाउड स्पीकरों में शोर मचाते भजन-कीर्तन से होने वाला ध्वनि प्रदूषण और सड़कों गलिओं पर फैले शामियाने-कनातों और पूजा पंडालों के अतिक्रमण जो ट्रेफिक जाम का सबब बन जाते हैं । दिनभर काम से थके लोगों को रात में इतने शोर में सोना एक सजा जैसी हो जाती है । किसी बीमार की उलझन को कोई नहीं समझ सकता कहीं से थोड़ी देर नींद आई भी तो ये शोर उसको ग्रसने में कोई कसर नहीं छोड़ते । रावण दहन अपने साथ-साथ कितने पेड़ों को दाहता है क्या हमने कभी सोचा ? उसमें लगने वाले कागज़ जो रीसाइकिल होकर काम आते, राख का ढेर बन जाते हैं ।
क्या यही है धर्म जिससे लोगों को तकलीफ हो ? सारे धर्म मानव कल्याण की बात करते हैं । क्या ये है मानव कल्याण ? क्या हम स्वार्थी नहीं हो गए जो सिर्फ अपने कल्याण की सोचते हैं ? और बाकी दुनिया ? ऊपर वाले ने तो सारी दुनिया बनाई है न , फिर ? उसको कष्ट देकर नुक्सान पहुँचाकर हम धर्म-कर्म कर रहे हैं क्या ?
क्या आपको नहीं लगता कि हमारे धार्मिक कर्मकांडों में संशोधन होना चाहिए ? देश काल परिस्थिति के अनुसार यदि हम अपने त्यौहारों को मनाने के तरीकों में बदलाव ले आयें तो क्या हम अधर्मी हो जायेंगे ? धर्म मानव कल्याण के लिए है न कि क्षति पहुँचाने के लिए । जब परिवर्तन प्रकृति का नियम है तो हम क्यों चिपके हुए हैं उन्हीं पुरानी
प्रथाओं के साथ ?
इन त्यौहारों में होने वाले बेतहाशा खर्चों से क्या मिलता है ? क्या ईश्वर इन खर्चों से प्रसन्न होंगे ? जितना खर्च इन पूजन सामग्रियों में होता है अगर उससे किसी असहाय की मदद करें तो क्या हम ईश्वर के बन्दे नहीं रहेंगे ? मैंने ऊपर एक बात कही थी कि ये त्यौहारों कोई न कोई सन्देश देते हैं । दिखावे और स्वार्थ में क्या हमने कभी उन संदेशों की तरफ ध्यान दिया ? नहीं न । विजयदशमी बुराई पर अच्छाई की विजय है । क्या यही है अच्छाई ? मेरा ध्येय इन सभी बातों से किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाना नहीं है । न ही नास्तिकता का प्रचार करना । आस्तिक मैं भी हूँ । आस्तिक उसे कहते हैं जो जीवन के उच्चतम मूल्यों में विश्वास करे । क्या वास्तव में ये त्यौहार हमें ख़ुशी दे पाते हैं ? फिजूल खर्च करके, दूसरों को तकलीफ दे कर ?
क्या ऐसा नहीं लगता कि हमें अपने दृष्टिकोणों को बदलने की आवश्यकता है ? समय की मांग में हमने हर चीज़ बदली है । अगर हम थोड़ा सा अपने विचारों में परिवर्तन ले आयें तो हर दिन त्यौहार का होगा । मन उत्सवों की नगरी बन जाएगा । मेरा ये कहने का अर्थ नहीं है कि आप अपने घर में आन्दोलन कर दें कि अब कोई त्यौहार नहीं मनाएंगे । मनाइए सभी त्यौहार मनाइए, बस उनको मनाने के ढंग में थोड़ा परिवर्तन ले आइये । एकदम से नहीं बल्कि सतत निरंतर । तो चलिए थोड़ा सा बदल जाएँ हम ।