रविवार, 27 दिसंबर 2009

नया सवेरा


नव वर्ष का नया सवेरा आया
संग अपने नयी खुशियाँ लाया

सूरज की किरने पड़ीं हर कोने
दिशाओं ने रुपहले चूनर ओढ़े

धरती ने ली गहरी अंगड़ाई
हवाओं ने मस्त ख़ुशबू बिखराई

नव कोपलों से बलखाती शाखों के तन
गुंजित हो उठे पंछियों के कलरव से वन

चहक रहा मन महक रहा मन
नए विहान का जब हुआ आगमन

आओ ऐसा प्रण एक करें अब हम
सदा दूसरों के दूर करें सब ग़म

अपने सब लक्ष्य पूर्ण करेंगे
नफरत, बैर भाव को दूर करेंगे

आओ जोड़ें अमन-चैन-प्रेम के बंधन
धरा को बनाएँ खुशहाली का आँगन

रविवार, 16 अगस्त 2009

तू अजब वसुंधरा है



नई नवेली तू अजब वसुंधरा है
तेरे रूप में सौंदर्य बिखरा पड़ा है

माथे पे सूरज की बिंदिया सजाली
गालों पर उषा की लाली लगाली
नीला आसमानी आँचल उड़ा है
तेरे रूप में सौंदर्य बिखरा पड़ा है


पंछियों के कलरव सी पायल है बोली
चली कहाँ तू सुन्दर सलोनी
घाघरे में धानी रत्नाकर उमड़ा पड़ा है
तेरे रूप में सौंदर्य बिखरा पड़ा है


काले घुंघराले केशों सी फैली
है रजनी
नाजुक कमर पे नदियों की
है करधनी
कंगन में चाँद तारों का नगीना जड़ा है
तेरे रूप में सौंदर्य बिखरा पड़ा है




(चित्र गूगल सर्च से साभार )

शनिवार, 18 जुलाई 2009

प्रौढ़ बचपन



रास्ते पर मैंने देखा

नन्हा सा एक प्रौढ़ बचपन

नहीं था उसके जीवन में

माता-पिता का प्यार -दुलार

उठा रखा था उसने हाथों में

अपने ही जैसा इक बचपन

साल चार के इस जीवन में

सिखा दिया था जीना उसको

जूझ रहा था पर हिम्मत से

लिए जिम्मेदारियों का बोझ स्वयं

नहीं था उसे कोई ग़म

देख के उसको आती मुझमें

दया
नहीं

जोश और ताकत वरन

दुआ करती हूँ उसको मिले

आने वाले इस जीवन में

सुख-सफलता

और

प्रसिद्धी पराक्रम



(पुरानी पोस्ट से)
(चित्र गूगल सर्च से साभार )

मंगलवार, 14 जुलाई 2009

तुलना



खिला फूल मदार का एक

मंदिर में हुई गुलाब से भेंट

बोला मदार गुलाब से नेक

होता तुमसे है अभिषेक

राजा हो या देवता अनेक

माली
रखता तुमको सहेज

करें प्रदर्शन अपना प्रेम

प्रेमी युगल हों या दोस्त विशेष

महके चमन तुमसे हर एक

गुलाब तुम हो अति विशेष

नहीं ठिकाना मेरा एक

देते सब मुझको उखाड़ के फ़ेंक

भटकता रहता हूँ पथ पे अनेक

लिए निराशा मन में समेट

हुई न मेरी प्रेम से भेंट

ली गुलाब ने फिर अंगड़ाई

बोला मदार से मेरे भाई

नहीं है जीवन कोई व्यर्थ

जिसका हो न कोई अर्थ

प्रकृति की है रचना जितनी

सबकी है विशेषता अपनी

तुम अपनी पहचान बनाओ

जीवन में कुछ नाम कमाओ

चढ़ते तुम हो उनके शीश

जो हैं सभी ईशों के ईश

तुमसे करते हैं उनका श्रंगार

फूल हो तुम भी विशेष मदार

करो न तुम किसी से तुलना

ढूंढो तुम भी वजूद अपना

जीवन में जिनके सुख होता है

काँटों पे उनको भी चलना होता है

मार्ग चिकने फिसलन लाते हैं

पथरीले मंजिल को पाते हैं

दो न तुम अपने को दोष

भरो जीवन में उमंग और जोश


(इस कविता को मैंने काफ़ी पहले पोस्ट किया था जब मैं चिट्ठा जगत से नही जुड़ी थी तब किसी ने नहीं पढ़ा था )

शनिवार, 4 जुलाई 2009

सावन के सुर मधुर सुन.....

अभी सावन आनें में चार दिन बाकी हैं, परन्तु जब वर्षा ऋतु आती है तो सावन के झूलों की याद बरबस हो आती है, सारा आलम मस्ती में गुनगुनानें लगता है.....................................





आया
मस्त मतवाला सावन
फुहारों की रिमझिम
बूंदों की गुनगुन
बरखा के सुर सुनाता मनभावन
आया मस्त मतवाला सावन

झर-झर झरती बूंदों की लड़ियाँ
पुलकित होती फूलों की पंखुडियाँ
उमड़-घुमड़ मेघों की गर्जन
वन-वन गुंजित मयूरों का क्रंदन

भर गए ताल-तलैये उपवन
आया मस्त मतवाला सावन

पड़ती फुहार झूलों पर जब-जब
सजे मेघ-मल्हार होठों पर तब-तब
झूमें तरुओं की शाखें चंचल
छनके पत्तों की पायल छन-छन

करते ता-ता धिन-धिन तरु गन
आया मस्त मतवाला सावन

आसमान के इन्द्रधनुषी रंगों का चोला
धारा ने अपने हरियाले आँचल को खोला
बिखरी बेल-बूटों की मतवाली लताएँ
निखरी हर पत्तों की हरियाली आभाएँ

गदराए हर सिंगार चंपा के उपवन
आया मस्त मतवाला सावन

पड़ती जब वारि की धारें कोमल तन
कण-कण की पुलकावलि करे निर्मल मन
दादुर टर-टर झींगुर तुन- तुन
बरखा की लय में गाए सुमधुर धुन

आया मस्त मतवाला सावन


रविवार, 28 जून 2009

पहली बारिश.....


बरखा के मौसम में जब
बादल घिर-घिर आता है
ठंडी हवाओं के झोंकों से
आँचल उड़-उड़ जाता है

नन्हीं चंचल बूंदों का जब
धरती पर रेला आता है
तन निर्मल धारों को पकड़
आसमान चढ़ जाता है

आसमान में रंगों का जब
सतरंगी मेला आता है
इन्द्रधनुष के झूलों में चढ़
मन ऊँचे पेंग लगाता है

बरखा की टिप-टिप जब
सुर मधुर गुंजाता है
हर मुख मस्ती में आकर
मेघ-मल्हार गुनगुनाता है


शुक्रवार, 19 जून 2009

बाल गीत....बीते दिन छुट्टी के अब.....


बीते दिन छुट्टी के अब

खुल गए स्कूल

बीते दिन मस्ती के अब

सुस्ती जाओ भूल




देर से उठना

खूब खेलना

दोस्तों के संग

पार्क में जाना

तितली के संग

दौड़ लगाना

अब तो जाओ भूल


बीते दिन छुट्टी के अब

खुल गए स्कूल



दिन भर घर में

उधम मचाना

भइया के संग

टीवी देखना

पापा के संग

बाजार जाना

अब तो जाओ भूल

बीते दिन छुट्टी के अब

खुल गए स्कूल


जल्दी सोना

जल्दी उठना

भइया के संग

स्कूल जाना

पढ़ना लिखना

होम वर्क करना

अब ना जाना भूल


बीते दिन छुट्टी के अब

खुल गए स्कूल

बीते दिन मस्ती के अब

सुस्ती जाओ भूल


(चित्र गूगल सर्च से साभार )



शुक्रवार, 5 जून 2009

पर्यावरण-


कराह रही है धरती अपनी
तड़प रहा है जन-जीवन

लुट गई हरियाली जिसकी
काट दिए वन-उपवन

छीन लिए जिसके सुन्दर आवरण
खतरे में पड़ गया उसका पर्यावरण

छाती थी घटाओं की परत तब
तार-तार हुए ओज़ोन परत अब

बनते थे जिसपे हरित गृह
बन गई वह स्वयं हरित का गृह

पिघल रहे हैं हिमनद कट-कट
हो जाएँगे जल-प्लावन सागर तट

थी कभी जहाँ सावन की हवाएं
बह रही वहां पसीने की धाराएं

चलती थी जहाँ पवन हौले-हौले
बरस रहे वहां आग के शोले


लूट लिया संसाधन जिसका
बचाना है अब अस्तित्व उसका

आओ मिलकर प्रण करें
जननी के लिए कुछ कर्म करें

घर-घर एक वृक्ष लगाएं
धरती के पर्यावरण को बचाएँ

फिर आएगा हरियाला सावन
नाच उठेगा मयूर मन वन

शनिवार, 30 मई 2009

तुलना


खिला फूल मदार का एक

मंदिर में हुई गुलाब से भेंट

बोला मदार गुलाब से नेक

होता तुमसे है अभिषेक

राजा हो या देवता अनेक

माली भी तुमको रखता है सहेज

तुमसे करें प्रदर्शन अपना प्रेम

प्रेमी युगल हों या दोस्त विशेष

महके चमन तुमसे हर एक

गुलाब तुम हो अति विशेष

नहीं ठिकाना मेरा एक

देते मुझको उखाड़ के फ़ेंक

भटकता रहता हूँ पथ पे अनेक

लिए निराशा मन में समेट

हुई मेरी प्रेम से भेंट

ली गुलाब ने फिर अंगड़ाई

बोला मदार से मेरे भाई

नहीं है जीवन कोई व्यर्थ

जिसका हो कोई अर्थ

प्रकृति ने की जो रचना अपनी

सबकी है विशेषता अपनी

तुम अपनी पहचान बनाओ

जीवन में कुछ नाम कमाओ

चढ़ते तुम हो उनके शीश

जो हैं सभी ईशों के ईश

तुमसे करते हैं उनका श्रंगार

फूल हो तुम भी विशेष मदार

करो तुम किसी से तुलना

ढूंढो तुम भी वजूद अपना

जीवन में जिनके सुख होता है

काँटों पे उनको भी चलना होता है

मार्ग चिकने फिसलन लाते हैं

पथरीले मंजिल को पाते हैं

दो तुम अपने को दोष

भरो जीवन में उमंग और जोश

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

छाँव


विशाल पीपल की छाँव

देती है सबको ठाँव

खड़ा रहता है धूप में

सदा अटल रूप में

सदा रहती है जीवन की लहर

कोमल पत्तियों में ठहर

रहती है शाखों पे उमंग

हवाओं से पाकर तरंग

देती है जीवन की आशा

दूर करके सबकी निराशा

पाते हैं नीचे इसके

ज्ञान ध्यान अंतर्मन

रविवार, 19 अप्रैल 2009

अकेलापन....


आकाश ने कहा एक दिन

धरती पे उगे नन्हे पौधे से

गर होता मैं भी धरती पे

तो होता करीब अपनों के

यहाँ रहता हूँ अकेले

तुम खुश किस्मत हो

पौधे ने कहा आकाश से

ग़म करो अपने अकेलेपन पे

जो होतें हैं दूर अपनों से

देते हैं छाया सबको

वो नहीं अकेले इस जहाँ में

होता है सारा जहाँ उनका अपना